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ज्ञानसार
यूं कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी की अब तक कुकर्मों के साथ सम्पन्न युद्ध में केवल शास्त्र को ही एक मात्र आधार मान और उस पर विश्वास रख बैठे रहने से आजीवन पश्चात्ताप के आँसू बहाने की नौबत आयी है। तभी शास्त्रकार प्रस्तुत में स्पष्ट शब्दों में कहते हैं :
"शास्त्र तो तुम्हें सिर्फ दिशाज्ञान ही देंगे !" फिर तुम्हें भवसागर से पार कौन लगाएगा ? . निश्चिंत रहिए । 'अनुभव' तुम्हें भव-पार लगाएगा !
हाँ, 'अनुभव' तक पहुँचने का मार्ग शास्त्र बतायेंगे । यदि भूलकर कभी मनःकल्पित मार्ग पर निकल पडे तो 'अनुभव' नामक मंजिल तक पहुँच नहीं पाओगे ? ठीक वैसे ही किसी मानसिक 'भ्रम' को 'अनुभव' समझ अपने आपको कृतकृत्य समझोगे तो आत्मोन्नति से वंचित रह जाओगे । अतः हमेशा शास्त्र से ही दिशाज्ञान प्राप्त करना ! फलतः जैसे-जैसे तुम 'अनुभव' के उत्तुंग शिखर पर आरोहण करते जाओगे वैसे-वैसे तुम्हारी पर-परिणति निवृत्त होती जाएगी और परपुद्गलों का आकर्षण नामशेष होता जाएगा। आत्म-रमणता की सुवास सर्वत्र फैल जाएगी। आत्म-परिणति की मीठी सौरभ वातावरण को सुरभित कर देगी। तभी यथार्थ वस्तु-स्वरुप के अवबोधपरक 'अनुभव'-शिखर तुम सर कर लोगे।
लेकिन 'अनुभव' शिखर के आरोहण का प्रशिक्षण लिये बिना ही यदि भावना से प्रेरित होकर प्रयत्न किये तो नि:संदेह अगमनिगम की किसी पहाडी की गहरी खाई में पटक दिये जाओगे और तब लाख खोजने के बावजूद भी तुम्हारा अता-पता नहीं मिलेगा ! अतः प्रशिक्षित होना अनिवार्य है । अध्ययन करना आवश्यक है। बाद में 'अनुभव' शिखर पर आरोहण करो । सफलता तुम्हारा पाँव छुएगी।
बोलो, इच्छा हैं ?
अरे भाई, केवल तुम्हारी इच्छा से ही नहीं चलेगा । इसके लिए आवश्यकता है दृढ़ संकल्प की, निर्धार-शक्ति की । साधना के मार्ग पर कठोर निर्णय के बिना नहीं चलता । विघ्नों को पाँव तले रौंदने हेतु दाँत पीस निरंतर आगे बढो... ! आभ्यंतर विघ्नों की श्रृंखलाओं को तोड दो... ! उसकी कमर ही