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अनुभव
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पाने हेतु पाँच इन्द्रियों पर संयम, चार कषायों पर अंकुश, पाँच आस्रवों से विराम और तीन दण्ड से विरति - कुल सत्तरह प्रकार के संयम का पालन करना ही पडेगा। केवल बाह्य संयम नहीं, अपितु आंतरिक संयम ! अपनी मनःस्थिति का ऐसा सर्जन करें कि विचार विषय- कषाय, आस्रव और दण्ड की तरफ मुड़े ही नहीं ।
विश्व में कदम-कदम पर उपस्थित समस्याएँ और घटनाएँ, जो अनुकूलप्रतिकूल होती हैं, उसके प्रति हमारा मन - राग-द्वेष से भर न जाएँ, बल्कि तटस्थता धारण करें, तभी आत्म - स्वरुप की सन्निकटता सम्भव है । वर्ना निरंतर क्रोधादि कषाय में अन्धे बने, शब्दादि विषय के प्रति आकर्षित और हिंसादि आस्रवों में लीन हम, विशुद्ध आत्मस्वरूप के दर्शन की बात करने भी क्या योग्य हैं ? वास्तव में चर्मदृष्टि में उलझे हुए अपन 'आत्म दर्शन' पर धुआँधार भाषण सुनते रहें फिर भी हम पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता है ।
न सुषुप्तिरमोहत्वान्नापि च स्वापजागरौ । कल्पनाशिल्पविश्रान्तेस्तुर्ये वानुभवो दशा ॥ २६ ॥७॥
अर्थ : मोहरहित होने से गाढ निद्रा रुपी सुषुप्ति - दशा नहीं है, ठीक वैसे ही स्वप्न और जागृत - दशा भी नहीं है । वह कल्पना रुपी कला-कौशल्य के अभाव के कारण, अनुभव रूपी चतुर्थ अवस्था है ।
विवेचन : अनुभवदशा ! ! !
क्या वह सुषुप्ति- दशा है ? क्या वह स्वप्न - दशा है ? क्या वह जागृतदशा है ? इन तीन दशाओं में से क्या किसी में भी अनुभव - दशा का समावेश हो, ऐसा नहीं हैं ? क्यों नहीं ? आइए, इस मसले पर विचार करें ।
(१) सुषुप्ति दशा निर्विकल्प है, अर्थात् सुषुप्तावस्था में मानसिक कोई विकार अथवा विचार नहीं होता । वह इन सब से निर्लिप्त होती है। लेकिन इस अवस्था में भी आत्मा मोह के बन्धनो से मुक्त नहीं होती । अनुभवदशा तो मोह के प्रभाव से सर्वथा मुक्त ही होती है। फलतः अनुभव का समावेश सुषुप्ति में नहीं हो सकता ।