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योग
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आराधना करते हैं, जबकि अपुनर्बन्धक, श्रावक वगैरह में इसका प्रारंभ होने से उनमें सिर्फ योगबीज ही होता है ।
कृपानिर्वेदसंवेग-प्रशमोत्पत्तिकारिणः ।
भेदाः प्रत्येकमत्रेच्छा - प्रवृत्तिस्थिरसिद्धयः ॥२७॥३॥
अर्थ : प्रत्येक योग की इच्छा, प्रवृत्ति, स्थिरता एवं सिद्धि - चार भेद होते । जो कृपा, संसार का भय, मोक्ष की कामना और प्रशम की उत्पत्ति करनेवाले
हैं ।
विवेचन : कुल पाँच योग हैं । प्रत्येक योग के चार-चार भेद अर्थात् सब मिलाकर बीस प्रकार होते हैं। हर एक योग के इच्छा, प्रवृत्ति, स्थिरता और सिद्धि-ये चार भेद हैं ।
प्रथम योग है - 'स्थान' । इससे आसन और मुद्राओं की इच्छा जागृत होती है । तत्पश्चात् उसमें प्रवृत्ति होती है, अर्थात् जिस धर्मक्रिया में जो आसन और मुद्रा आवश्यक है, उसे करें। तब उसमें स्थिरता का प्रादुर्भाव होता है। मतलब आसन / मुद्रा के द्वारा चंचलता, अरुचि और उदासीनता दूर होती है। इस तरह आसन और मुद्रा सिद्ध होती है ।
द्वितीय योग है -'उर्ण' | जिस क्रिया में जिन सूत्रों का उच्चारण करना हो, उन सूत्रों का पर्याप्त अध्ययन करने की इच्छा प्रकट होती है । तत्पश्चात् सम्बन्धित क्रियाओं में सूत्रों का उच्चारण करने की प्रवृत्ति करें। सूत्रों के उच्चारण में स्थिरता आती है, यानी कभी तेज गति तो कभी मंद गति, ऐसी अस्थिरता नहीं रहे । इस तरह सूत्रोच्चार की सिद्धि प्राप्त होती है ।
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तृतीय योग है - 'अर्थ' । सम्बन्धित सूत्रों के अर्थ का ज्ञान आत्मसात् करने की भावना पैदा हो । अर्थज्ञान प्राप्त करने की प्रवृत्ति करे । अर्थ-ज्ञान स्थिर बने, यानी दुबारा वह विस्मरण न हो जाए, इस तरह अर्थज्ञान की ऐसी सिद्धि प्राप्त करें कि वह जो-जो धर्म क्रियायें करे, स्वाभाविक रुप से उसका अर्थोपयोग होता रहे ।
चतुर्थ योग है 'आलम्बन' । आलम्बन - स्वरुप जिन - प्रतिमादि के प्रति