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अनुभव
परिभाषा हमारे सामने रख दी है !
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उन्होंने बुद्धिशाली पण्डितों के लिए उनकी बुद्धि की मर्यादा स्पष्ट कर दी है और बुद्धि तथा तर्क की अवहेलना करनेवालों के लिए उसकी अनिवार्यता समझा दी है । ठीक वैसे ही सिर्फ अनुभव के गीत गानेवालों को शास्त्र और उसके रहस्य प्राप्त करने की बात गले उतार दी ! जबकि आजीवन शास्त्रों के बोझ को सर पर ढोकर, विद्वत्ता और कुशाग्र बुद्धि में ही कृतकृत्यता समझनेवालों को अनुभव की सही दिशा इंगित कर दी । इस तरह सबका सुन्दर और मोहक समन्वय साधकर, न जाने कैसा अप्रतिम अव्वल दर्जे का आत्मविज्ञान प्रगट किया है !
चलिए, हम भी जीवन के पाकगृह में चलकर चूल्हे पर शास्त्रज्ञान की खीर पकाये... तार्किक बुद्धि की कलछी से खीर पकाकर अनुभव जिह्वा द्वारा उसका रसास्वादन कर, जीवन को सार्थक और सुन्दर बनायें ।
पश्यतु ब्रह्म निर्द्वन्द्वं निर्द्वन्द्वानुभवं विना ! कथं लिपिमयी दृष्टिर्वाड्मयी वा मनोमयी ॥२६॥६॥
अर्थ : क्लेशरहित शुद्ध अनुभव के बिना पुस्तक रुप, वाणी रुप, ग्रन्थ के ज्ञान रुप दृष्टि, राग-द्वेषादि से सर्वथा रहित विशुद्ध आत्म-स्वरुप को कैसे देख सकते हैं ?
विवेचन : चर्म - दृष्टि, शास्त्र - दृष्टि और अनुभव - दृष्टि !
जिस पदार्थ का दर्शन अनुभव - दृष्टि से ही सम्भव है, उस पदार्थ को चर्म - दृष्टि अथवा शास्त्र - दृष्टि से देखने का प्रयत्न करना शत-प्रतिशत व्यर्थ है । कर्म-कलंक से मुक्त विशुद्ध ब्रह्म का दर्शन चर्म - दृष्टि से सर्वथा असम्भव है और शास्त्र - दृष्टि से भी । उसके लिए आवश्यक है अनुभव - दृष्टि !
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लिपिमयी दृष्टि, वाङ्मयी दृष्टि, मनोमयी दृष्टि ! इन तीनो दृष्टि का समावेश शास्त्र - दृष्टि में होता है। साथ ही, ये तीनों दृष्टि विशुद्ध आत्म-स्वरुप को देखने में सर्वदा असमर्थ हैं ।