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ज्ञानसार
निर्जितमदमदनानां, वाक्कायमनोविकाररहितानाम् । विनिवृत्तपराशानामिहैव मोक्षः सुविहितानाम् ॥२३८॥ स्वशरीरेऽपि न रज्यति शंत्रावपि न प्रदोषमुपयाति । रोगजरामरणभयैरव्यथितो यः स नित्यसुखी ॥२४०॥
ऐसे महात्माओं के लिये यहीं इसी धरती पर साक्षात् मोक्ष है, जिन्होंने प्रचंड मद और कामदेवता-मदन को पराजित किया है। जिनके मन-वचनकाया में से विकारों का विष नष्ट हो गया है । जिनकी पर-पुद्गल-विषयक आशा और अपेक्षायें नामशेष हो गयी हैं और जो स्वयं परम त्यागी व संयमी हैं। ऐसे महापुरुष शब्दादि विषयों के दारुण परिणाम को सोच, उसकी अनित्यता एवं दुःखद फल को अन्तर की गहराई से समझ और सांसारिक राग-द्वेषमय भयंकर विनाशलीला का खयाल कर, अपने शरीर के प्रति राग नहीं करते, शत्रु पर रोष नहीं करते, असाध्य रोगों से व्यथित नहीं होते, वृद्धावस्था की दुर्दशा से उद्विग्न नहीं बनते और मृत्यु से भयभीत नहीं होते । वे सदा-सर्वदा 'नित्य सुखी' है, परम तृप्त हैं।
परमाराध्य उपाध्यायजी ने इन सब बातों का समावेश केवल दो शर्तों में कर दिया है। ज्ञानतृप्त और निरंजन महात्मा सदा सुखी हैं । महा सुखी बनने के लिये उपाध्यायजी द्वारा अनिवार्य शर्ते बतायी गयी हैं । इन दो शर्तों को जीवन में क्रियात्मक स्वरूप प्रदान करने के लिये श्री उमास्वातिजी भगवन्त का मार्गदर्शन शत-प्रतिशत वास्तविक है ।