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ज्ञानसार
माया और लोभ इन चार कषायों के पराधीन नहीं होना चाहिए । विकथाओं में कभी लिप्त नहीं होना चाहिए । नारी के सम्बन्ध में भूलकर भी साधु चर्चा न करें । भोजनादि विषयक वातचीत से दूर रहना चाहिये । देस-परदेस की और राजा महाराजाओं की कपटपूर्ण चर्चा में दिलचस्पी नहीं लेनी चाहिए । मद्यपान से साधु को बचना चाहिए । यदि साधु को इन पाँच प्रमादों से अलिप्त रहना आ जाए तो मजाल है कि उसके आत्मप्रदेश पर कर्म-शत्रु आक्रमण कर दें ! फिर भले ही वह उसके इर्द-गिर्द चक्कर क्यों न लगाता हो !
कहने का तात्पर्य यह है कि यदि मुनिराज कर्म-घुसपैठियों को घुसपैठ का अवसर ही न दे तो उनके सताने का, हैरान/परेशान करने का सवाल ही न उठे । हाँ, उसे घुसपैठ करने का मौका देना न देना, साधु पर निर्भर है । यदि प्रमाद के आचरण को 'कर्मकृत' संज्ञा प्रदान कर, उसका अनुशरण करें तो अध:पतन हुआ ही समझो ! फिर उसे पतन की गहरी खाई में गिरते कोई बचा नहीं सकेगा। यह तथ्य भलि भाँति समझ लेना चाहिये कि 'चरमावर्त काल' में प्रमाद-सेवन में कर्म का हाथ नहीं होता और यह बात तभी गले उतरेगी जब हम कुटिल कर्म की लीला को अच्छी तरह समझ लेंगे । इसलिए कर्म का अनुचिंतन करना आवश्यक है। कर्म-विपाक का विचार आते ही जीव काँप उठता है ।
साम्यं बिभर्ति यः कर्मविपाकं हृदि चिन्तयन् । स एव स्याच्चिदानन्दमकरन्दमघव्रतः ॥२१॥८॥
अर्थ : हृदय में कर्म-विपाक का चिन्तन-मनन करते हुए जो समभाव धारण करता है, वही योगी ज्ञानानन्द रुपी पराग का भोगी भ्रमर होता है ।
विवेचन : हे योगीराज ! आपतो भोगी भ्रमर हैं, ज्ञानानन्द-पराग का जी भर कर उपभोग करनेवाले है, आपके हृदय में सदा कर्म-विपाक का चिंतन और मुख पर समता का संवेदन है !
बिना कर्म विपाक-चिंतन के समभाव का वेदन नहीं होता और समभाव के वेदन बिना ज्ञानानन्द का अमृतपान असम्भव है। मतलब उपरोक्त श्लोक से तीन बातें स्पष्ट होती हैं :