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लोकसंज्ञा- - त्याग
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अतः सदैव आपके स्मृति - पट पर यह तथ्य अंकित होना चाहिए कि, 'मैं छठे गुणस्थान पर स्थित हूँ । इसके पहले के पाँच गुणस्थान मैंने सफलतापूर्वक पार कर लिये हैं । अतः मुझे कुदेव, कुगुरु और कुधर्म के प्रति श्रद्धाभाव से नहीं देखना चाहिए । मैं दूध-दही में पाँव नहीं रख सकता । में मिश्र - गुणस्थान पर नही हूँ । आपकी दृढ़ श्रद्धा होनी चाहिए कि, 'जिनोक्त तत्त्व ही सत्य हैं ।' में गृहस्थ नहीं हूँ... अतः गृहस्थ की भांति मेरी वृत्ति और बर्ताव नहीं होना चाहिये । मैं अणुव्रतधारी नहीं अपितु महाव्रतधारी हूँ । जिन पापों को बारह व्रतधारी श्रावक तज नहीं सकता, मैं ने उन्हें त्रिविध - त्रिविध ( मन-वचन काया से कराना और अनुमोदन करना) तज दिया है । अतः मेरे लिए ऐसी आत्माओं का सम्पर्कसम्बन्ध हितकारक है, जिन्होंने मेरी तरह पापों को त्रिविध-त्रिविध छोड़ दिए हैं। अपने पापों के परित्याग के साथ ही मैंने देव - गुरु और संघ की साक्षी, सम्यग् ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना करने की आत्मा की अनुभूति से कठोर प्रतिज्ञा की है । फलस्वरूप मुझे ऐसी ही सर्वोत्तम आत्माओं का सहवास पसंद करना चाहिये जो सम्यग्ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना में ओत-प्रोत हों ।"
हे मुनिराज ! आपको इस तरह का चिंतन-मनन करना चाहिये, ताकि आप पापासक्त और मिथ्या कल्पनाओं में खोये जीवों के सहवास, परिचय और उन्हें खुश करने की वृत्ति से बच जाओ ।
मैं लोकमार्ग का नहीं, बल्कि लोकोत्तर मार्ग का यात्री हूँ । लोक मार्ग और लोकोत्तर मार्ग (जिन मार्ग) में जमीन - आकाश का अन्तर है ! लोकमार्ग मिथ्या धारणाओं पर चलता है, जबकि लोकोत्तर - मार्ग केवलज्ञानी वीतराग भगवन्त द्वारा निर्देशित निर्भय-मार्ग है | अतः लोकोत्तर - मार्ग का परित्याग कर मुझे लौकिक मार्ग की ओर हर्गिज नहीं जाना चाहिए ! मुझे लोगों से भला क्या लेना-देना ? मेरा उनसे कोई सम्बन्ध नहीं है ! लौकिक मार्ग में स्थित जीवों से मैंने तमाम रिश्ते-नातों का विच्छेद कर दिया है ! उनका सहवास नहीं, ना ही उनका किसी प्रकार का अनुकरण ! क्योंकि उनकी कल्पनाएँ, विचार, व्यवहार, धारणा और आदर्श अलग होते हैं ! जबकि मेरी कल्पना - सृष्टि, धारणाएँ और आदर्श अलग होते हैं ! जिन्दगीपर्यंत लोकोत्तर मार्ग - जिनमार्ग का अनुसरण करूँगा, न कि लोकमार्ग का ! हर प्रसंग और हर घटना में मैं देवाधिदेव जिनेश्वर भगवन्त को