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ज्ञानसार
भी न था... ! अतः ऊपर उठे दोनों हाथ के साथ-साथ वे खुद भी मानसिक युद्धभूमि से स्वस्थान लौट आये ! आनन-फानन में उन्हें अपनी भूल समज में आ गयी । पश्चात्ताप की भावना उग्र होती गयी । इस तरह वे धर्म- ध्यान और शुक्लध्यान में दुबारा स्थिर हो गये और केवलज्ञानी बने !
धर्मोपासना के कार्य में लोकसाक्षी को प्रमाणभूत न मानो ! आत्म- साक्षी को प्रमाणभूत मानो ! यदि लोकसाक्षी को प्रमाणभूत मानने की भूल करोगे तो जाहिर में अपनी धर्म-भावना प्रदर्शित करने की कुबुद्धि सुझेगी... ! फलस्वरूप तुम्हारा सारा दार-मदार संसार और संसारी-जीवों पर रहेगा ! आत्मा को विस्मृत कर जाओगे ! उसकी उपेक्षा करने लगोगे । तब आत्मोन्नति के लिए धर्मध्यान करने की भावना विलुप्त हो, लोक-प्रसन्नता के लिए ही धर्माराधना होगी... । इस तरह आत्म-कल्याण का महान् कार्य बीच में स्थगित हो जाएगा और तुम जन्म - मृत्यु के फेरों में भटक जाओगे । मोक्ष का सुहाना सपना छिन्न-भिन्न हो जाएगा... शिवपुरी का कल्पनामहल ध्वस्त होते देर नहीं लगेगी । पुनः चौरासी लाख जीव-योनि का परिभ्रमण अनिवार्य हो जाएगा । तब भला, लोक-साक्षी से धर्म - ध्यान करने से क्या मतलब ? इसके बावजूद धर्मकार्य में सदैव आत्मसाक्षी को प्रधान मान, मोक्ष - पथ पर गतिशील होना चाहिए ।
लोकसंज्ञोज्झितः साधुः परब्रह्मसमाधिमान् । सुखमास्ते गतद्रोहममतामत्सरज्वरः ॥२३॥८॥
अर्थ : जिसके द्रोह-ममता और गुण-द्वेष रूपी ज्वर उतर गया है और जो लोक संज्ञा-रहित परब्रह्म में समाधिस्थ हैं, ऐसे मुनि सदा-सर्वदा सुखी रहते
हैं ।
विवेचन : पूज्य गुरुदेव ! आप सुखपूर्वक रहें !
आपके मन में भला, किस बात का दुःख है ? आपकी तो परब्रह्म में समाधि होती है | आपके सुख को उपमा भी कौन सी दी जाएँ ? मन के दुःख तो होते हैं पामर जीव को ! जो द्रोह से दग्ध है, जिसके मर्मस्थानों में ममता दंश मारती है और जिसे मत्सर का दाहज्वर आकूल - व्याकूल बनाता है । आपके मन में तो द्रोह, ममता और मत्सर के लिए कोई स्थान ही नहीं ! आपके सुख और