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ज्ञानसार
शास्त्रदृष्टि ऊपर उठती है तो समग्र ऊर्ध्वलोक का दर्शन होता है । यह सूर्य-चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र और तारागण... असंख्य देवी-देवता और देवेन्द्रों का ज्योतिषचक्र ! उससे ऊपर सौधर्म और इशान, सनत्कुमार और माहेन्द्र देवलोक, तत्पश्चात् ब्रह्म, लांतक, महाशुक्र सहस्त्रार देवलोक । उसके उपर आनत और प्राणत, फिर आरण और अच्युत देवलोक ! क्या तुमने ये बारह देवलोक देखे हैं ? उससे भी ऊपर एक के बाद एक नवग्रैवेयक देवलोक को देखो ! अधीर न होकर, तनिक धीरज रखो । अब तुम लोकांत के निकट ही स्थित रमणीय प्रदेश का दर्शन करोगे । देखो उसे, यह 'पाँच अनुत्तर' के नाम से सुविख्यात है! यहाँ से सिद्धशिला, जहाँ अनंत सिद्ध भगवन्त बिराजमान हैं, सिर्फ बारह योजन दूर है । सिद्ध भगवन्तो को कैसा सुख है ? अक्षय, अनंत और अव्याबाध ! खैर, अभी तो इसके दर्शन से ही संतुष्ट होइए, इसका अनुभव करने के लिए तो तुम्हें अशरीरी होना होगा।
अब जरा नीचे देखिए ! सम्हलना, कम्पायमान न होना ! सबसे पहले नीचे रहे असंख्य व्यन्तरों के भवनों का दर्शन करो... और वन-उपवन में रमणीय उद्यानों में केलि-क्रीडा करते वाणव्यन्तरों को देखो । ये सभी देव हैं, इन्हें 'भवनवासी' कहा जाता है।
इससे भी नीचे उतरिए !
यह रही पहली नरक । इसे 'रत्नप्रभा' के नाम से पहचाना जाता है । इसके नीचे शर्कराप्रभा है ! तीसरी नरक वालुकाप्रभा है। चौथी नरक को देखा? उफ् ! कैसी भयानक, खौफनाक है ? उसे पंकप्रभा कहते हैं । पाँचमी नरक का नाम है घूमप्रभा । जबकि छठवीं तम:प्रभा और सातवीं महातमःप्रभा है। गाढा अन्धकार है सर्वत्र । कुछ भी दृष्टिगोचर नहीं होता । जीव आपस में मार-काट
और खून की नदियाँ बहाते नजर आते हैं । न जाने कैसी घोर वेदना... चीख... चित्कार... ! सिर फट जाए-ऐसा कोलाहल ! तुमने अच्छी तरह देखा न ? नरक के जीव मरना चाहते हैं, लेकिन मर नहीं सकते । हाँ, कट जाएँगे, पाँवों के तले कुचल जाएगे, लेकिन मरेंगे नहीं ! जब तक आयुष्य पूरा न हो तब तक मृत्यु कैसी ? किसी तरह सडते-गलते भी निर्धारित अवधि पूरी करना है । इसे अघोलोक कहा जाता है।