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भवोद्वेग
३१९ संयम-आराधना में एकाग्रता लाने हेतु दिया है। एकाग्र-चित्त हुए बिना संयम की मंजिल पाना असम्भव है।
विषं विषस्य वनेश्च वह्निरेव यदौषधम् । तत्सत्यं भवभीतानामुपसर्गेऽपि यन्न भीः ॥२२॥७॥
अर्थ : विष की दवा विष और अग्नि की औषधि अग्नि ही है । इसीलिए संसार से भयभीत जीवों को उपसर्गों के कारण किसी बात का डर नहीं होता।
विवेचन : यह कहावत सौ फीसदी सच है : 'विष की दवा विष और अग्नि की औषधि अग्नि' ।
विष यानी जहर । जहर का भय दूर करने के लिये जहरीली दवा दी जाती है। उससे तनिक भी डर नहीं लगता । ठीक उसी तरह अग्नि-शमन के लिए अग्न की औषधि देने में भय नहीं लगता । तब भला संसार का भय दूर करने के लिये उपसर्गों की औषधि सेवन करने में किस बात का भय ?
- अतः धीर-वीर मुनिवर उपसर्ग सहने के लिये अपने-आप तैयार होते हैं, उन्हें गले लगाने के लिये खुद कदम आगे बढ़ाते हुए नहीं घबराते । भगवान् महावीर ने श्रमण-जीवन में नानाविध उपसर्ग सहने हेतु अनार्य देश का भ्रमण किया था। क्योंकि उनके मन में कर्म-रिपुओं का भय दूर करने की उत्कट भावना थी। उन्होंने शिकारी कुत्तों का उपसर्ग सहन किया... ग्वालों ने उनेक चरणांबुज को चुल्हा बनाकर खीर पकायी, लेकिन वे मौन रहकर सब सहते रहे... । अनार्य पुरुषों के प्रहार और असह्य वेदना, कष्ट और यातनायें सहते हुए उफ तक नहीं की । ऐसे तो अनेकानेक उपसर्ग शान्त रह, सहते रहे । उन्हें किसी तरह का भय महसूस न हुआ । अरे, औषधि के सेवन में भला, भय किस बात का ?
शारीरिक रोगों के उपचार हेतु लोग बंबई-कलकत्ता नहीं जाते ? वहाँ डाक्टर शल्य-चिकित्सा करता है, हाथ-पाँव काटता है, आँख निकालता है, पेट चीरता है... और भी बहुत कुछ करता है । लेकिन रोगी को उसकी इस क्रिया । विधि से कतइ डर नहीं लगता। वह खुद स्वेच्छा से चीर-फाड कराता है। क्योंकि