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ज्ञानसार
ज्ञानी तस्माद् भवांभोधेनित्योद्विग्नोऽतिदारुणात् । तस्य संतरणोपायं, सर्वयत्नेन काङ्क्षति ॥२२॥५॥
अर्थ : जिसका मध्यभाग गंभीर है, जिसका (भव समुद्र का) पेंदा (तलभाग) अज्ञान रुपी वज्र से बना हुआ है, जहाँ संकट और अनिष्ट रूपी पर्वतमालाओं से घिरे दुर्गम मार्ग हैं ।
जहाँ (संसार-समुद्र में) तृष्णा स्वरूप प्रचंड वायु से युक्त पाताल कलश रूपी चार कषाय, मन के संकल्प रुपी ज्वारभाटे को अधिकाधिक विस्तीर्ण करते
जिसके मध्य में हमेशा स्नेह स्वरुप इन्धन से कामरुप वडवानल प्रज्वलित है और जा भयानक रोग-शोकादि मत्स्य और कछुओं से भरा पड़ा है।
दुर्बुद्धि, ईर्ष्या और द्रोह-स्वरुप बिजली, तूफान और गर्जन से जहाँ समुद्री व्यापारी तूफान रुपी संकट में पड़ते हैं ।
ऐसे भीषण संसार-समुद्र से भयभीत ज्ञानी पुरुष उससे पार उतरने के प्रयत्नो की इच्छा रखते हैं।
विवेचन : संसार !
जिस संसार के मोह में असंख्य जीव अन्धे बन गये हैं, जानते हो वह संसार कैसा है ? मोक्षगति-प्राप्त परम-आत्मायें संसार को किस दृष्टि से देखती हैं ? तुम भी उसके वास्तविक स्वरूप का दर्शन करोगे, तब उद्विग्न हो उठोगे। तुम्हारे मन में उसके प्रति अप्रीति के भाव पैदा होंगे । एक प्रकार की नफरत पैदा हो जाएगी और यही तो होना चाहिये । मोक्ष के इच्छुक के लिए इसके सिवाय
और कोई चारा नहीं है । संसार की आसक्ति... प्रीतिभाव छिन्न-भिन्न हुए बिना शाश्वत्... अनन्त... प्रदीर्घ...... अव्याबाध सुख सम्भव नहीं । संसार के यथार्थ स्वरूप का तनिक जायजा लो ।
संसार को समुद्र समझो। १. संसार-समुद्र का मध्यभाग अगाध है।