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ज्ञानसार
सम्भवतः तुम यह कहोगे कि यदि उसमें सावधानी से सतर्क बनकर रहा जाए तो काला बनने का सवाल ही कहाँ उठता है ? लेकिन कैसी सावधानी का आधार लोगे? जबकि कज्जल-गृह में वास करनेवाला हर जीव अपने स्वार्थ के प्रति ही जागरूक है, सावधान है। क्योंकि स्वार्थ-सिद्धि के नशे में धुत्त उन्हें कहाँ पता है कि वे पहले से ही भूत जैसे काले बन गये हैं ! उन्हें तभी ज्ञान होगा, जब वे दर्पण में अपना रूप निहारेंगे और तब तो वे अनायास चीख उठेंगे : 'अरे, यह मैं नही हूँ, कोई दूसरा है !' लेकिन दर्पण में अपना रूप देखने तक के लिये भी उन्हें समय कहाँ है ? वे तो निरन्तर दूसरों का रूप-रंग और सौन्दर्य देखने के लिये पागल कुत्ते की तरह घिधिया रहे हैं और वह भी स्वार्थान्ध बन कर । यदि परमार्थ-दृष्टि से किसी का सौन्दर्य, रूप रंग देखेंगे तो तत्क्षण घबरा उठेंगे। उनकी संगत छोड़ देंगे और कज्जल-गृह के दरवाजे तोड़ कर बाहर निकल आयेंगे।
संसार में ऐसा कौन सा क्षेत्र है, जहाँ जीवात्मा कर्म-काजल से लिप्त नहीं होता ? जहाँ मृदु-मधुर स्वरों का पान करने जाता है... लिप्त हो जाता है। मनोहर रुप-रंग और कमनीय सौन्दर्य का अवलोकन करने के लिये आकर्षित होता है... लिप्त हो जाता है । गन्ध-सुगन्ध का सुख लूटने के लिये आगे बढ़ता है... लिप्त हो जाता है। स्वादिष्ट भोजन की तृप्ति हेतु ललक उठती है... लिप्त हो जाता है। कोमल काया का उपभोग करने के लिये उत्तेजित होता है, लिप्त हो जाता है। फिर भले ही उसे शब्द, रुप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि के सुख के पीछे दर-दर भटकते समय यह भान न हो कि वह कर्म-काजल से पुता जा रहा है । लेकिन यह निर्विवाद है कि वह पुता अवश्य जाता है और यह प्रक्रिया ज्ञानी-पुरुषों से अज्ञात नहीं है । वे सब जानते हैं । जीव जनावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, अन्तराय, नाम, गोत्र और वेदनीय, इन सात कर्मों से लिप्त बनता रहता है । यह काजल-लेप चर्मचक्षु देख नहीं पाते । इसे देखने के लिये जरुरत है-ज्ञानदृष्टि की, केवलज्ञान की दृष्टि की।
तब क्या चतुर्गतिमय संसार में रहेंगे तब तक कर्म-काजल से लिप्त ही रहना होगा ? ऐसा कोई उपाय नहीं है कि संसार में रहते हुए भी इससे अलिप्त रह सकें ? क्यों नहीं ? इसका भी उपाय है । पूज्य उपाध्यायजी महाराज फरमाते