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निःस्पृहता
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अर्थ : जो करबद्ध हैं, नतमस्तक हैं, ऐसे मनुष्य भला, किस किस की प्रार्थना नहीं करते ? जबकि अपरिमित ज्ञान के पात्र ऐसे नि:स्पृह मुनिवर के लिये तो समस्त विश्व तृण-तुल्य है !
विवेचन : स्पृहा के साथ दीनता की सगाई है ! जहाँ किसी पुद्गलजन्य स्पृहा मन में जगी नहीं कि दीनता ने उसके पीछे-पीछे दबे पाँव प्रवेश किया नहीं ! स्पृहा और दीनता, अनंत शक्तिशाली आत्मा की तेजस्विता हर लेती हैं और उसे भवोभव की सूनी- निर्जन सड़कों पर भटकते भोगोपभोग का भिखारी बना देती हैं !
महापराक्रमी रावण के मन में परस्त्री की स्पृहा अंकुरित हो गई थी ! सीता के पास जाकर क्या कम दीनता की थी उसने ? करबद्ध हो, दीन-वाणी में गिड़गिड़ाते हुए सीता से भोग की भीख मांगी थी । दीर्घकाल तक सीता की स्पृहा में वह छटपटाता रहा, तड़पता रहा और अन्त में अपने परिवार, पुत्र, निष्ठावान् साथी और राजसिंहासन से हाथ धो बैठा ! अपने हाथों ही अपना सत्यानाश कर दिया ! स्पृहा का यह मूल स्वभाव है : जीव के पास दीनता का प्रदर्शन कराना ! गिड़गिड़ाने के लिये जीव को विवश करना और प्रार्थना याचना करवाना ! अतः मुनि को चाहिये कि वह भूलकर भी कभी पर पदार्थ की स्पृहा के पीछे दीवाना न हो जाए और यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि जो-जो लोग उसके शिकार बने, उन्हें सर्वस्व का भोग देकर दीन-हीन याचक बनना पड़ा है ! महीन वस्त्र, उत्तम पात्र, उपधि, मान-सम्मान, खान-पान, स्तुति-स्वागत किसी की भी स्पृहा नहीं करनी चाहिए ! स्पृहा की तीव्रता होते ही भले भले अपना स्थान- भूमिका और आचार-विचार को तिलांजलि दे देते हैं! "मैं कौन ? मैं भला ऐसी याचना करूँ... ? ... करबद्ध और नतमस्तक हो दीन - स्वर में भीख माँगु ? यह सर्वथा उचित नहीं है !"
नि:स्पृह मुनिराज ही अनंतज्ञान के, केवलज्ञान के पात्र हैं ? जो अनंतज्ञान का अधिकारी है वह भूले भटके भी कभी पुद्गलों की स्पृहा नहीं करेगा ! सोना और चाँदी उसके लिए मिट्टी समान है ! गगनचुम्बी इमारतें ईंट-पत्थर से अधिक कीमत नहीं रखती और रूप-सौन्दर्य का समूह केवल अस्थिपंजर है ! सारे संसार को तृणवत् समझ, निःस्पृह बना रहनेवाला योगी / मुनि परमब्रह्म का आनन्द