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तत्त्व-दृष्टि
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लावण्यलहरीपुण्यं वपुः पश्यति बाह्यदृग् ।। तत्त्वदृष्टिः श्वकाकानां भक्ष्यं कृमिकुलाकुलम् ॥१९॥५॥
अर्थ : बाह्यदृष्टि मनुष्य सौंदर्य-तरंग के माध्यम से शरीर को पवित्र देखता है, जबकि तत्त्वदृष्टि मनुष्य उसे ही कुत्तों के खाने योग्य कृमि से भरा हुआ खाद्य देखता है।
विवेचन : शरीर ! नारी से भी बढ़कर प्रिय शरीर ! तुम भला, शरीर को किस दृष्टि से देखते हो !
बाह्यदृष्टि से शरीर, सौन्दर्य से सुशोभित, स्वच्छ और निर्मल प्रतीत होता है ! जबकि तत्त्वदृष्टि को यही शरीर कौए-कुत्तों के खाने योग्य कृमिओं से भरा भक्ष्य मात्र लगता है। कोई एक शरीर को देख रागी बनता है, जबकि दूसरा उसे देख बिरागी/रागहीन बनता है ! एक शरीर की सेवा करता है, हिफाजत करता है, जबकि दूसरा उसके प्रति बिलकुल उदासीन बेपरवाह होता है ! एक शरीर के माध्यम से अपनी महत्ता समझता है, जबकि दूसरा स्वयं को उसके बन्धनों में जकड़ा महत्त्वहीन । तुच्छ मानता है !
शारीरिक सौन्दर्य उसकी शक्ति, उसका लावण्य और उसके आरोग्य को महत्त्व देनेवाला बाह्यदृष्टि जीव... शरीर में सर्वत्र व्याप्त आत्मा के सौन्दर्य को देख नहीं सकता, ना ही आत्मा की अपार शक्ति को समझ पाता है ! साथ ही, आत्मा के अव्याबाध आरोग्य की उसे तनिक मात्र कल्पना नहीं होती। अरे, मुलायम, मोहक त्वचा के तले रही बिभत्सता को वह देख नहीं सकता ! उसकी दृष्टि तो सिर्फ बाह्य त्वचा पर ही केन्द्रित होती है । वह रूखी त्वचा को मुलायम बनाने में, आकर्षक बनाने में प्रयत्नशील रहता है ! गंदी चमडी को साफ सुथरी बनाने के लिए आकाश-पाताल एक कर देता है ! बहिरात्मदशा में ऐसा ही होता है !
लेकिन अन्तरात्मा... तत्त्वदृष्टि पुरुष हमेशा शरीर के भीतर झांकता है और काँप उठता है। उसमें रहा मांस और रूधिर, मल और मूत्र... यदि बाहर निकल कर रिसने लगे तो देखा न जाए ऐसा बीभत्स दृश्य खडा हो जाता है।