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ज्ञानसार
या सृष्टिब्रह्मणो बाह्या बाह्यापेक्षावलम्बिनी । मुनेः परानपेक्षाऽन्तर्गुणसृष्टिः ततोऽधिका ॥२०॥७॥
अर्थ : जो ब्रह्मा की सृष्टि है, वह सिर्फ बाह्य जगतरूप है, साथ ही बाह्य कारण की अपेक्षा रखनेवाली है । जबकि मुनिवर की अन्तरंग गुण-सृष्टि अन्यापेक्षारहित होने से अधिक श्रेष्ठ है ।
विवेचन : ब्रह्मा सृष्टि के जनक हैं !
कहा जाता है कि ब्रह्मा ने सृष्टि का सर्जन किया है, लेकिन उनका सर्जन कैसा है ? समस्त जगत का सर्जन पर-सापेक्ष ! अन्य के अवलम्बन पर ही सारा दार-मदार ! इस प्रश्न का निराकरण कहीं नहीं मिलता कि आखिर ब्रह्मा ने ऐसी सृष्टि का सर्जन क्यों किया? किसी ने नन्हे-मुन्नों को समझाने की दृष्टि से कहा प्रतीत होता है कि ब्रह्मा के मन में सष्टिसर्जन का विचार आया और सर्जन कर दिया। लेकिन एकाध बच्चे ने कहीं पूछ लिया होता : 'ब्रह्मा को किसने पैदा किया ?' तब नि:संदेह यह बात प्रचलित न होने पाती कि ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना की है। किसी के गले न उतरे ऐसी यह बात बुद्धिजीवियों ने स्वीकार कर ली है और शास्त्रों ने इसे सिद्ध करने के प्रयत्न किये हैं। 'ब्रह्मा की उत्पत्ति कैसे हुई ?' प्रश्न का जवाब अगर कोई दे दें कि 'ब्रह्मा तो अनादि है !' तब हमें यह मानने में क्या हर्ज है कि 'सृष्टि भी अनादि है !'
जाने दीजिए इस चर्चा को ! हमें सिर्फ विचार करना है मुनि ब्रह्मा के सम्बन्ध में । मुनि-ब्रह्मा अन्तरंग गुणों की रचना करते हैं, गुण-सृष्टि का सर्जन करते हैं... ! उक्त रचना से बाह्य रचना कई गुनी श्रेष्ठ और महत्त्वपूर्ण है । गुणसृष्टि के सर्जन में किसी बाह्य कारण की अपेक्षा ही नहीं रहती ।
बाह्य दनिया के सर्जन में न जाने कितना पराश्रयपन ! एक मकान खड़ा करने में, नारी की स्नेह-दृष्टि प्राप्त करने में, धन-सम्पत्ति संचय करने में, सगेसम्बन्धी तथा मित्र-परिवार के साथ सम्बन्ध बांधने में... आत्मा से भिन्न ऐसे जड़चेतन पदार्थों के बिना भला, चल सकता है क्या ? इन पदार्थों के लिए कितने राग-द्वेष और असत्य के फाग खेलने पड़ते हैं ? जो भी झगड़े और क्लेश होते हैं इन पर-पदार्थों के कारण ही होते हैं । ठीक वैसे ही, जीवमात्र की सुख-शान्ति