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ज्ञानसार
जाती है।' इस संसार में ऐसे जीवों की भी कमी नहीं है।
आत्मोत्कर्षाच्च बध्यते कर्म निचैर्गोत्रं ।
प्रतिभवमनेकभवकोटिदुर्मोचम् ॥
भगवान उमास्वातिजी फरमाते हैं, "आत्मप्रशंसा के कारण ऐसा नीचगोत्र कर्म का बन्धन होता है कि जो करोड़ों भवों में भी छूट नहीं सकता ।"
साथ ही, यह भी शाश्वत् सत्य है कि यदि हम सही अर्थ में धर्माराधक हैं, तो हमें अपने मुँह अपनी ही प्रशंसा करना कतइ शोभा नहीं देता ।
श्रेयोद्मस्य मूलानि, स्वोत्कर्षाम्भःप्रवाहतः । पुण्यानि प्रकटीकुर्वन्, फलं किं समवाप्स्यसि ? ॥१८॥२॥
अर्थ : कल्याणरुपी वृक्ष के पुण्यरुपी मूल को अपने उत्कर्षवाद रुपी जल के प्रवाह से प्रकट करता हुआ तू कौन सा फल पायेगा ?
विवेचन : कल्याण वृक्ष है। उसका मूल पुण्य है, जड़ है।
जिसकी जड़ मजबूत है, मूल नीचे तक भीतर उतरा है, वह वृक्ष मजबूत । यदि जड़ें ही कमजोर हैं, तो वृक्ष के ढहते देर नहीं लगेगी । वह धराशायी हुआ ही समझो । सुख का विशाल वटवृक्ष पुण्य रूपी घनी जड़ों पर ही खड़ा है । - क्या तुम जानते ही कि वटवृक्ष की जड़ में पानी का प्रवाह पहुँच गया है और उसके मूल बाहर दिखायी देने लगे हैं। उसके आसपास की मिट्टी पानी की धारा में बह गई है। क्या तुम्हें पता है ? पानी की वजह से मूल कमजोर हो गये हैं और वक्ष खतरनाक ढंग से हिलने-इलने लगा है। जरा आँखें खोलो, होश में आओ और ध्यान से देखो । वृक्ष कडाके की आवाज के साथ जमीन पर आ गिरेगा । उफ, इतनी उपेक्षा करने से भला, कैसे चलेगा ?
क्या तुम पानी के प्रवाह को नहीं देख रहे हो ? अरे, तुमने खुद ही तो नल खोल दिया है। क्या तुम अपनी प्रशंसा नहीं करते ? अपनी अच्छाईयों और अच्छे कामों का बखान नहीं करते ? अपने गुण और प्रवृत्तियों की 'रिकार्ड