________________
१०२
ज्ञानसार
किया था ।
१. व्रत का स्मरण : जब हमारे शुभ भावों पर अशुभ भावों का आक्रमण होता हैं, तब हमें अंगीकृत व्रत / प्रतिज्ञा का सतत स्मरण करना चाहिये । फलतः आत्मा में ऐसी अजेय शक्ति का प्रादुर्भाव होता है कि जिसके बल से, आधार से, अशुभ भावों को भगाने में क्षण का भी विलम्ब नहीं लगता । झांझरिया मुनि पर जब कामोन्मत्त सुन्दरी ने आक्रमण किया था, तब मुनिवर ने शान्त-चित्त से यही कहा था :
मन-वचन-काया से ग्रहित, लिया व्रत नहीं भंग करूँ। अविचल रहुँ ध्रुव सा निज तप में पुनः संसार का न मोह धरूँ ॥
२. गुणशालियों का सम्मान : गुणशाली का मतलब है शुभ भावनाओं के शस्त्रास्त्रों से सज्ज सैनिक ! इनके प्रति अगाध श्रद्धा, परम भक्ति और अपार प्रीति-भाव रखने से संकट काल में वे हमारी सहायतार्थ दौड़े आते हैं और हमारे आत्मधन की रक्षा करते हैं।
३. पाप-जुगुप्सा : हमने जिन पापों का परित्याग कर दिया है, उनके प्रति कभी किसी प्रकार का आकर्षण पैदा न हो । मोह की सुप्त भावना उत्पन्न न हो जाए, अत: सदैव उन पापों से घृणा करनी चाहिए। उनके सम्बन्ध में हमारे मन में नफरत की चिंगारी सुलगनी चाहिए। जिस तरह ब्रह्मचारी के दिल में अब्रह्म पाप-क्रिया से नफरत होती है।
४. परिणाम-आलोचन : पाप-क्रिया से होनेवाले परिणाम और धर्मक्रिया के परिणाम पर हमें निरन्तर विचार करना चाहये, चिन्तन-मनन करना चाहिये । 'दुःखं पापात् सुखं धर्मात्' सूत्र स्मृति में रहना चाहिए ।
५. तीर्थंकर भक्ति : देवाधिदेव तीर्थंकर भगवान का नामस्मरण दर्शनपूजन और उनके अनन्त उपकारों का सतत स्मरण-चिन्तन जरूरी है। साथ ही उनके प्रति अनन्य प्रीति-भाव धारण करने से हमारे शुभ भावों में निरन्तर वृद्धि होती रहती है।