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ज्ञानसार
है। क्योंकि क्रोध और रोष की भावना जगते ही ज्ञान एवं क्रिया निष्प्राण और निर्जीव हो जाती है। भवसागर में भ्रमण करती नौका वहीं रुक जाती है, ठिठक जाती है। अगला प्रवास अवरोधों के कारण भंग हो जाता है । यदि हमने क्रोध, रोष, ईर्ष्या रुपी भयंकर जलचरों को दूर नहीं किया तो वे नौका में छेद कर देंगे उसे जल-समाधि देने का हर सम्भव प्रयत्न करेंगे । नौका में छेद होने भर की देर है कि समुद्र-जल उसमें भर आएगा और परिणाम यह होगा कि वह सदा के लिये समुद्र के गर्भ में अन्तर्धान हो जायेगी। इसी तथ्य को परिलक्षित कर उपाध्यायजी महाराज ने बताया है कि भवसागर पार लगने की इच्छुक आत्मा शान्त-प्रशान्त, क्षमाशील और परम उपशमयुक्त होनी चाहिये । ४. भावितात्मा :
ज्ञान, दर्शन और चारित्र से आत्मा भावित बननी चाहिये । जिस तरह कस्तूरी से वासित बने वस्त्र में से उसकी मादक सुगन्ध वातावरण को प्रसन्न
और आह्लादक बनाती है, ठीक उसी तरह ज्ञान-दर्शन-चारित्र से सुरभित बनी आत्मा में से ज्ञान-दर्शन-चारित्र की सौरभ निरन्तर प्रसारित होती रहती है। उसमें से मोह-अज्ञान की दुर्गन्ध निकलने का सवाल ही पैदा नहीं होता । ५. जितेन्द्रिय :
भवसागर से पार लगने के इच्छुक जीवात्मा को अपनी इन्द्रियाँ वश में रखनी चाहिये । अनियंत्रित बनी इन्द्रियाँ जीव को नौका में से समुद्र में फेंकते विलम्ब नहीं करती हैं।
इन पाँच बातों को जिसने अपने जीवन में पूरी निष्ठा के साथ कार्यान्वित किया है, उसे भवसागर से पार लगते देर नहीं लगेगी। अन्य जीवों को पारलगाने की योग्यता भी तभी सम्भव है, जब उक्त पाँच बातों को साध लिया हो और जिसने इसकी कतइ परवाह नहीं की हो । वह यदि किसीको पार लगाने की चेष्टा करेगा तो खुद तो डूबेगा ही, अपितु दूसरे को भी डुबोएगा ।
क्रियाविरहितं हन्त, ज्ञानमात्रमनर्थकम् । गति विना पथज्ञोऽपि, नाप्नोति पुरमीप्सितम् ॥९॥२॥