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क्रिया
स्वानुकूलां क्रियां काले, ज्ञानपूर्णोऽप्यपेक्षते । प्रदीप : स्वप्रकाशोऽपि, तैलपूर्त्यादिकं यथा ॥९॥३॥
अर्थ : जिस तरह दीप स्वयं प्रकाशस्वरुप होते हुए भी उसमें (प्रज्वलित रखने के लिये) तेल-वगैरह की जरूरत होती है। ठीक उसी तरह प्रसंगोपात पूर्णज्ञानी के लिये भी स्वभाव स्वरूप कार्य के अनुकूल क्रिया की अपेक्षा होती
विवेचन : जब तक सिद्धि प्राप्त न हो और साधक-दशा विद्यमान है तब तक क्रिया की आवश्यकता होती है । अलबत्त, साधना की विभिन्न अवस्थाओं में उनके लिये अनुकूल ऐसी भिन्न-भिन्न क्रियाओं की अपेक्षा होती है । अर्थात् केवलज्ञानी ऋषि-महर्षियों को भी क्रिया की आवश्यकता रहती ही
है।
स्वभाव को पुष्ट करने के लिये समान्यतः क्रिया की आवश्यकता रहती है । उचित समय में उचित क्रिया जरूरी है।
सम्यक्त्व की भूमिका में रही विवेकी आत्मा समकित के लिये परमावश्यक ६७ प्रकार के व्यवहार का विशुद्ध पालन करती है। उसका आदर्श होता है देशविरति और सर्वविरति का ।
देशविरति रूप श्रावकजीवन की कक्षा तक पहुँचे जीव को बारह व्रत की पवित्र क्रियाओं का आचरण करना होता है। क्योंकि उसका अन्तिम लक्ष्य सर्वविरतिमय श्रमणजीवन प्राप्त कर कर्मों की पूर्ण निर्जरा करना होता है ।।
सर्वविरतिमय साधुजीवन में रही साधक आत्मा को ज्ञानाचारादि आचारों का परिपालन और दशविध यतिधर्म, बाह्य-आभ्यन्तर बारह प्रकार के तपादि क्रियाओं का आश्रय ग्रहण करना पड़ता है। क्षपकश्रेणी पर चढ़ते समय शुक्लध्यान की क्रिया करनी पड़ती है ।
तत्राष्टमे गुणस्थाने, शुक्लसद्धयानमादिमम् । ध्यातुं प्रक्रमते साधु राद्यसंहननान्वितः ॥५१॥
- गुणस्थान क्रमण