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ज्ञानसार
• ज्ञानाचार की आराधना तब तक करनी है, जब तक ज्ञानाचार का शुद्ध पद
केवलज्ञान प्राप्त न हो जाए । हमेशा आराधना करते समय इस बात की गांठ बांध लेनी चाहिये कि, 'ज्ञानाचार के प्रसाद से केवलज्ञान अवश्य प्राप्त होगा।' दर्शनाचार की आराधना तब तक करनी चाहिये, जब तक हमें क्षायिक समकित की उपलब्धि न हो जाये । चारित्राचार की उपासना उस हद तक करनी चाहिये, जब तक 'यथाख्यात चारित्र' की प्राप्ति न हो जाये । तपाचार का सेवन तब तक किया जाए, जब तक 'शुक्लध्यान' की मस्ती सर्वांग रूप से आत्मा में ओत-प्रोत न हो जाये । वीर्याचार का पालन तब तक ही किया जाय, जब तक आत्मा में अनंत विशुद्ध वीर्य का निर्बोध संचार न हो जाये ।
इस तरह का निश्चय और संकल्प शक्ति, जीवात्मा के लिये परम फलदायी और शुभ सिद्ध होती है। जबकि संकल्पविहीन क्रिया प्रायः निष्फल सिद्ध होती है । केवलज्ञान, क्षायिक दर्शन, यथाख्यात चारित्र, शुक्ल-ध्यान और अनंत विशुद्ध वीर्योल्लास की प्राप्ति का दृढ़ संकल्प रख, ज्ञानाचारादि में सदासर्वदा पुरुषार्थशील बनना है । ज्ञानाचारादि के लिये तब तक ही पुरुषार्थ करना चाहिये, जब तक उनके-उनके शुद्ध पद की प्राप्ति न हो जाए । जब तक हमारी अवस्था शुभोपयोगवाली है और सविकल्प है, तब तक निरन्तर ज्ञानाचारादि पंचाचार का पालन करना अति आवश्यक है।
मतलब यह कि हमें ज्ञानाचारादि का पालन पूरी लगन से करना चाहिये, जबकि अन्तिम लक्ष्य, संबन्धित पद-प्राप्ति का होना चाहिये । लेकिन निर्विकल्प अवस्था प्राप्त होते ही उसमें किसी संकल्प और क्रिया का स्थान नहीं रहता । क्योंकि निर्विकल्प योग में उच्च कक्षा के ध्येय-ध्यान-ध्याता की अभेद अवस्था होती है। जब तक यह अवस्था प्राप्त न हो जाए, जब तक ज्ञानाचारादि आचारों के आलम्बन से शुभोपयोग में दत्तचित्त हो जाना चाहिये ।