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त्यांग
८५ स्वार्थ के सगे हैं । जहाँ देखो वहाँ स्वार्थ ! जहाँ जाओ वहाँ स्वार्थ ! बस, स्वार्थ, स्वार्थ और स्वार्थ ! अतः मैंने उन्हें स्नेही-स्वजन बना लिया है, जो हमेशा रोषतोष से रहित हैं। उनके पासमें सिर्फ एक ही वस्तु है, सर्वजीवों के लिये मैत्रीभाव और अपार करुणा और वे हैं-निर्ग्रन्थ साधु-श्रमण ! वे ही मेरे वास्तविक स्नेही स्वजन हैं।"
इस तरह बाह्य परिवार का परित्याग कर आत्मा औदयिक भावों का त्यागी और क्षायोपशमिक भावों को प्राप्त करनेवाला बनता है। औदयिक भाव में निरन्तर डूबे रहने की वृत्ति को ही संसार कहा गया है। जहाँ तक हम इस वृत्ति का परित्याग करने में असमर्थ रहेंगे, वहाँ तक संसार-त्यागी नहीं कहलायेंगे।
धर्मास्त्याज्याः, सुसंगोत्थाः, क्षायोपशमिका अपि । प्राप्य चन्दनगन्धाभं, धर्मसंन्यासमुत्तमम् ॥८॥४॥
अर्थ : चन्दन की गन्ध-समान श्रेष्ठ धर्म-संन्यास की प्राप्ति कर, उसके सत्संग से उत्पन्न और क्षयोपशम से प्राप्त पवित्र धर्म भी त्याज्य है ।
विवेचन : सत्संग से जीवात्मा में 'क्षायोपशमिक' धर्मों का उदय होता है। परमात्मा के अनुग्रह और सदगुरु की कृपा से मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान
और मनःपर्ययज्ञान प्रकट होता है । देशविरति और सर्वविरति की प्राप्ति होती है। दान-लाभ-भोगोपभोग और वीर्यादि श्रेष्ठ लब्धियों का आविर्भाव होता है ।
न जाने प्रशस्त निमित्त-आलम्बो का जीवात्मा पर कैसा तो अद्भुत प्रभाव है ! पारसमणि के स्पर्श मात्र से लोहा सुवर्ण बन जाता है। उसी तरह देव-गुरु के समागम से मिथ्यात्व, कषाय, अज्ञान, असंयम आदि औदयिक भावों से मलीन आत्मा समकित, सम्यग्ज्ञान, संयम आदि गुणों से युक्त, स्वच्छ । सुशोभित बन जाती है । क्षायोपशमिक धर्म भी तब तक ही आवश्यक हैं, जब तक क्षायिक गुणों की प्राप्ति न हो ! क्षायिक गुण आत्मा का मूल स्वरुप है। इसके प्रकट होते ही क्षायोपशमिक गुणों की भला आवश्यकता ही क्या है ? ऊपरी मंजिल पर पहुँच जाने के बाद सीढ़ी की क्या गरज है ? औदयिक भाव के भूगर्भ से क्षायिक भाव के रंगमहल में पहुँचने के लिये क्षायोपशमिक भाव सिढ़ी समान