Book Title: Dvisandhan Mahakavya
Author(s): Dhananjay Mahakavi, Khushalchand Gorawala
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 281
________________ २६६ द्विसन्धानमहाकाव्यम् पृश्चिति-कृतम्, किम् ? वनम् , चैन ! विधात्रा ब्रह्मणा, कथम्भूतम् ! ललितजवचितं कमनीयलोकविभूषितम्, किं कुर्वतेव सता ? परिहरतेव त्यजतेव, कम् ? तं श्रमं प्रयासम् , छ ? अपदे अस्थाने कथञ्चिन्महता कन, कथम् ? तदा तस्मिन् काले, कथम्भूतेन विधात्रा ? विहितवता कृतवता किम् ? वनम् , कदा ? चिरम् कथाभूतम् ? उचितानुपभोग्यम् उचितानां शिष्ट जनानाम् अनुपभोग्यम् , कयम्भूतम् ? एकयोग्यं ऋरसत्वानां योग्यम्, कथम्भूतम् ? पृथु विस्तीर्णम् ॥ ३ ॥ प्रियमदइदमेतदित्यपूर्व प्रति जनताग्रगमेन 'तृप्तुमैच्छत् । यदि परिचितसाम्यतोऽन्यतोऽपि प्रतिविरतोऽस्ति न कस्य निवृतिः स्यात्॥४॥ प्रियभिति--ऐच्छत् वाञ्छति स्म, का ? जनता जगसमूहः, किं कम् ? तृप्तुं तृमिमात्मानमानेतुम् , केन १ अग्रगमेन पुरोयानेन, किं प्रति ? अपूर्व प्रति, कथम् ? इति अदः प्रियमिदं प्रियमेतत् नियमिति यदि चेन्नास्ति, कः ? प्रतिविरतो बिरसो जनः, कस्मात् ? अन्यतोऽपि अन्यस्मादपि वस्तुनः कथम्भूतात् ? परिचितसाभ्यतः परिचितेन अनुभवमानौतेन वस्तुगा शाम्यं सादृश्यं यस्य तस्मात्तथोक्तात् तदा कस्य न कस्यापि निर्वृतिः सौख्यं स्यादित्यर्थः ।।४।। कुसुममिषुचयो गुणोऽलिमाला मृदुविटपायतयष्टयो धषि । विविधमिदमनङ्गशस्त्रजातं सफलमभृच्चिरलक्ष्यदर्शनेन ॥५॥ कुसुममिति-कुसुमं पुष्पम् इचयो काणजमूहोऽभूत् तथालिमाला अमरश्रेणिः गुणः जीवाऽभूत् , मृदुविटवायतयष्टयः कोमलदिटपदीर्घयष्टयः धघि चापान्यभवन् इति कृत्या विविधं नानाप्रकारमिदमनङ्गशस्त्रजातं कन्दपायुधसमूहः सफलाम् अर्थक्रियाकारि अमृन्, केन ? चिरलक्ष्यदर्शनेन बहुतरसमयतो वेध्यावलोकनेनेति ॥५॥ कलमलिकुलकोकिलापलापं स्मरधनुरानकनादमाकलय्य । दयितपरिगमेऽपि कातराणां धगिति कृतं हृदयेन कामुकीनाम् ॥६॥ कलमिति-धगिति कृतम् , केन ? हृदयेन, कासाम् ! कामुकीनां कन्दर्पदपंकथितानां कामिनीनाम् , क सत्यपि १ दयितपरिगमेऽपि वल्लभपरिरम्भे पि, कथम्भूताना कानुकीनाम् ? कातराणां भीरूणाम् , किं कृत्वा हृदयेन धगिति कृतम् ? कलं मनोहरम् अलिकुलकोकिलाप्रलापं स्मरधनुरानकनादम् आकलय्य शकित्वा ॥६॥ अनादि कालसे शिष्ट लोगोंके उपयोग के लिए अनुपयुक्त तथा ऋर जंगली प्राणियों के अनुकूल बनोंके रचयिता विधाताने अस्थानमें कृत परिश्रसके अपवादसे बचनेकी दृष्टिसे ही बड़े परिश्रम पूर्वक सुन्दर शिष्ट लोगोंसे परिपूर्ण इस वनको बनाया था |॥३॥ 'आ हा, यह कैसा प्यारा है ? यह कैसा है ? इसकी सुन्दरता देखिये ?' इत्यादि शब्दों द्वारा अब तक न देखें गये पुष्पोंके प्रति उद्गार प्रकट करती जनता आगे-आगे बढ़ कर ही संतुष्ट होना चाहती थी। यदि जाने परचे और पक समानसे भी लोग विरत नहीं • होते हैं, तो विलक्षणसे किसको निवृत्ति हो सकती है l फूलौ रूपी घाणों का विशाल संचय, भ्रमरश्रेणि मयी जीवा तथा कोमल और लम्बी डालियों रूपी धनुष, ये कामदेवझे विविध शस्त्रसमूद्द बहुत समय बाद लक्ष्य सरस पुरुषों के सामने आते ही सफल हो गये थे ॥५॥ भ्रमरश्रेणी तथा कोकिलोको मधुर वाणीको सुनके कामदेयके धनुषकी टंकारका भ्रम हो जानेके कारण प्रकृतिसे ही भीरु कामिनियों के हृदय धक् धक् करने लगे थे, यद्यपि उनके वल्लभ ही उनको आश्लेष कर रहे थे।।६।। १.'प्रस्तुमै- उचितो पाठ:

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