Book Title: Dvisandhan Mahakavya
Author(s): Dhananjay Mahakavi, Khushalchand Gorawala
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 303
________________ द्विसन्धानमहाकाव्यम् संरम्भिणाशान्तनवेन मुक्त होमेण भूरिभनसान ! स्वयंभुवा वाग्गुरुणा न सोढः स सिंहनादः कृतवर्मणा च ॥१६॥ (पञ्चार्यकः) पञ्चकृत्वः, संरम्भिरणेति—स सिंहनादो न सोड:, कया? भुवा भूम्या क्षोभेण कृत्वा यः सिंहनादो मुक्तः, केन ? संरम्भिणा मेघनादेन रावणपुत्रेण, कथम्भूतेन ? आशान्तनवेन आशान्ते दिगन्ते नवः स्तुतिर्यस्य स तथोक्तस्तेन सर्वदिक प्रसिद्ध नेत्यर्थः पुनः कथम्भूतेन बरेण उत्तमेन, केषां मध्ये ? भूरिश्रवसां प्रचुरयशसाम्, वाथं यथा भवति ? स्वयम् अयो भाग्यवहो विधिः शोभनोग्यो यस्मिन् कर्मणि तत्स्वयम् पुनः कथम्भूतेन ? वागुरुणा वचनगरिष्डेन पुनः कथम्भुतेन कृतवर्मणा विहितसन्नाहेन, इत्येकः पक्षः, तथा स सिंहनादो न सोढः, केन का? भुवा न सोढः कथम् ? स्वयमात्मना भोभेण कृत्वा यः सिंहनादो भूरिश्रवसा भरिश्रवोऽभिधानेन कुम्भकर्णपुत्रेण युक्तः, कथम्भूतेन ? संरम्भिरणा राभस्यवता पुनः कथम्भूतम् ? शान्तनत्रेन शान्तश्चासो नवश्व शान्तनबस्तेन शान्तनबेन उपशमवता यौवनवता चेत्यर्थः, पुनः कथम्भूतेन ? आम्बरेण अम्बरगतिराम्बरस्तेन तथोक्तेन पुनरपि गुरुणा गरिष्ठेन पुनः कृतवर्मणेति शेषः । अथ भारतीयः-स्वयम् आत्मना अम्बरेणाका शेन भुवा भूम्या च सिंहनादो न सोढः, क्षोभण कृत्वा यः सिंहनादो मुक्तः, केन ? शान्तनवेन गाङ्गेयेन, कयम्भुतेन ? संरम्भिणा औत्सुक्यवता, पुन: कथम्भूतेति ? भूरिश्रवसा प्रचुरयशसा पुनः गुरुणा पुनः कृतवर्मणा, तृतीयः पक्षः, तथा स्वयम्भुवा ब्रह्मणा न स सिंहनाद; सोढः यो वा क्षोभेण कृत्वा सिंहनादो मुक्तः, केन की ? गुरुणा द्रोरणेनाचार्येण, कथम्भूतेन ? संरम्भिणा पुनः आशान्त नवेन सर्वदिसिद्धेन पुनः भूरिश्रवसां वरेण प्रचुरयशसां श्रेष्ठेन पुनः कृतवर्मणा, चतुर्थः पक्षः, तथा स्वयम्भुवा अयोगिजेन गुरुणा बृहस्पतिनापि स सिंहनादो न सोड: य: क्षोभेण कृत्वा सिंहनादो मुक्तः, केन फर्ना ? कृतवर्मणा कृतवर्माभिधानेन नरेन्द्रेण, कथम्भूतेन ? संरम्भिणा कोपयुक्तेन पुनः शान्तनवेन शान्तेषु जितेन्द्रियेष्वेव पुरुषेषु नवः स्तवनं यस्य तेन शान्तैरपि स्तुतेनेत्यर्थः पुनः भूरिश्रवसां वरेणेति थेषः, पञ्चमः पक्षः ।।१६।। लिया था ? क्योंकि उसका रय जिधर जाता था उधर ही विजय होती थी। अन्वय--प्रहस्तः स्वरंहस्त उदारवृत्ति कुर्वन्, दीप्रांशुकः, रणे स-हसा सोऽयं जयद्रथः प्रकुप्यन के रिपुं वशं न चकार । यद्यपि लोगोंके द्वारा हसा गया था तथापि अपने वेगके साथ प्रागे-मामे बड़कर उदार प्रकृतिका परिचय देता हुना, प्रखरकिरण (सूर्य) के समान तेजस्वी और रगमें अकस्मात् ही संहारकर्ता, उस जयद्रथने कुपित होनेपर किस शत्रुको नहीं हरा दिया था ? ॥ १५॥ (प्रथम अर्थ ) महान् यशस्वियोंके अग्नपी मेघनाद ( संरम्भिन ) को तिहगर्जनाको किसीने भी नहीं सहा था, क्योंकि इसको कीर्ति विशानोंके अन्त तक फैली थी, इसके मारे पृथ्वी काँपती थी, इसके वचनोंमें सार था, और उस समय वह कवच धारण करके युद्धके लिए सम्बद्ध था ( हितीय अर्थ ) अत्यन्त वेगवान्, प्रकृति से प्रशान्त और युवक, बातका हठी और युद्धवेशमें उपस्थित खेचर पुत्र भूरिश्रवाको रोषसे निकली हुँकारको स्वयम् रामने भी नहीं सहा था। (तृतीय अर्थ ) विश्व में प्रत्यन्त विख्यात, वय तथा पदके कारण पितामह, कवचाविसे सुसज्जित तथा युद्ध के प्रपंचमें प्रवीण भीष्म ( शान्तनय ) के द्वारा क्रोधावेगसे किये गये अनक्षरो युद्धघोषको पृथ्वी और प्राकाश भी स्वयं नहीं सम्हाल सके थे। ( चतुर्थ ) १. 'अशान्तश्चासौ नवश्व अशान्तनवस्तेन अशान्तनवेन भौद्धस्यवतेति । २. अभक अनक्षरः शब्दभेदरहित इति यावत् सिंहनाद मध्य वसेयः । A nnanoos

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