Book Title: Dvisandhan Mahakavya
Author(s): Dhananjay Mahakavi, Khushalchand Gorawala
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 364
________________ अष्टादशः सर्गः शत्रवः यूयं सुखं यया भवति तथा प्राध्वं तिष्ठत्, किं कृत्वा ? पूर्व बन्धून् बान्धवान् जिया। समपादाभासो यमकः ॥१०॥ पशुपच्छादयन्भीरूशूरानच्छादयं समम् । हृद्यस्वच्छादयन्धातोरस्त्रैः स्वच्छादयनमः ॥११॥ पशुवदिति-पशुवत् मीरून् शादयन् अम्पाजयन् शूरान् अय राषणः जरासन्धश्च समं युगपत् अच्छात् चिच्छेद, छो छेदने इति धातुः, तथा सः रावणः नमः गगनम् अस्त्रैः बाणः स्वच्छादयत् अतिशन छादयति स्म, किं कुर्वन् ? अयन् गच्छन्, कस्मात् ? धातोरभिप्रायात्, कथम्भूतात् ? अस्वच्छात् कुटिलात्, क्व ? हृदि चेतसोति । चतुष्पादशब्दयमकः ।।११॥ वक्षसासौ पुरोभागं तेजसादित्यमुर्वराम् । शस्त्रैरघुक्षतोयुक्तः कीर्त्या तस्तार दिङ्मुखम् ॥१२॥ वक्षसेति--रघुनलोयुक्तः रधुवघोद्यतः असो रावणः वक्षसा उरसा युरोभागं भटानामुपसरणं तस्तार, आदित्यं तेजसा प्रतापेन तस्तार, उर्वरा भुवं शस्त्रः तस्तार, कोया दिङ्मुखं तस्ताराच्छादितवान् । ___भारतीयः- अघुक्षत “गुह संघरणे' धातोः रूपम्, संवृतवान् स जरासन्धः, कम् ? पुरोभागं पर पणम् क्व ? असो खड्गे, केन कृत्वा ? वक्षसा अत्र कोपाधिक्यं व्यज्यम्, 'कोपवक्ष्यो हि प्राणी अन्यदपि विस्मृत्यान्यदपि गृह्णातीति' श्रुतेः । तथा तेजसा आदित्यं शस्त्रवरामतः कारणात् अघुशत, किम् ? तारदिङ्मुखं विशददिग्वदनम्, श्या ? का, कथम्भूतः ? उद्युक्तः ॥१२॥ स हस्ताभ्यां चमूहस्तौ सहस्ताभ्यामपीडयत् । विभजिजपुः प्रतापाग्नी रिभ्रत्संधिसुतामिव ॥१३॥ स इति–अपीडयत् पीडितवान्, कोऽसौ ? स प्रतिविष्णुः कोसावयं रामणो जरासन्धश्च, को ? चमूहस्तो सेनापावों, काभ्याम् ? ताभ्यां लोकोत्तराम्यां हस्ताभ्याम् कथम्भूतः ? सहक्षमः, पुनः विधज्जिपु: प्रतिशोध दृढ़तर हो गया था। और वह सोचता था कि सम्बन्धी ( बन्धून ) शत्रुओंको जीतकर मौजसे रहूँगा ] ॥१०॥ रावस तथा जरासन्धने भीरु योद्धाओंको पशुनोंके समान अनायास ही संत्रस्त कर दिया था ( शादयन् ) और इसके साथ ही साथ चीरोंको इसने काटकर फेंक दिया था ( अच्छात् ) तथा प्राकाशको बारणोंको बौछारसे वैसा ही सब तरफसे ढंक दिया था (स्वच्छादयत्) जैसे मलिन ( अस्वच्छ ) विचारों ( धातोः ) के द्वारा हृदयको व्याप्त किया जाता है ॥११॥ रघुवंशियोंके बध ( क्षत ) के लिए तत्पर ( उद्युक्त ) रावणके वक्षस्थलको देखते ही शत्रुथोंका पलायन प्रारम्भ हो गया था, प्रतापके कारण सूर्य छिप गया था, शस्त्रोंके प्रहारसे पृथ्वी व्याप्त हो गयी थी [ उद्यत जरासन्ध ने कोपोन्मत्त चितसे सैन्यके अग्नभागको तलवारमें छिपा दिया था, तेजसे सूर्यको पछाड़ दिया था और हथियारोंते पृथ्वीको पाट दिया था अतएव सर्वव्यात ( तार ) दिशाओंके अन्तको भी कीतिसे ढक दिया था ] ॥१२॥ समर्थ (सहः) रावरणने अपनी लोकप्रसिद्ध भुजाओंके द्वारा शत्रुसैन्यके दोनों पाश्वों (चमूहस्तौ) को चाप दिया था। मानो सन्धि करनेको भावनाको वह प्रतापकी ज्वालामें

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