Book Title: Dvisandhan Mahakavya
Author(s): Dhananjay Mahakavi, Khushalchand Gorawala
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 347
________________ द्विसन्धानमहाकाव्यम् न विधुः स्मरशस्त्रशाणवन्धः स्वयमेष स्फुरिताश्च ता न ताराः। मदनास्त्रनिशानवतिशल्काचयोऽसाविति मानिभिश्चकम्पे ॥४६॥ ऐति—मानिभिः का कैरिति कृत्वा मम्मे कम्पितम्, ममिति तत्राहि-दिधुश्चन्द्रो न भति, वः ? एपः, faहि भवति ? स्मरशस्त्रशाणबन्धः, कथा ? स्वयमात्मा, ता लोकप्रसिद्धाः ताराश्व न मन्ति, कषाभूताता ? स्फुरिताः, कितहि भवति ? कोऽसी मदनास्वनिशान लशकरचयमदनशास्त्रनिशानाग्निकणकिर इति ११४९।। आत्मपादशरवं कुमुदौधं भानुतापितमवेत्य सवैरम् । हन्तुमभ्यधिकामिछुरिदेन्दुश्चक्रवाकमवपकमलं च ॥५०॥ अमेति--स इन्दुदचन्द्रः चक्राको पागलं च अधिक यथा भवति तथा अलपत् संसारिलदाम, कि मुर्दम्रिय ? वैवं हन्तृमिरज वाञ्छन्तिव, f करना: पूर्व कुमुझौध मनिकर बात्मवारशरणम् अवेत्य मन्वा, कथम्भूतमवेत्य भानुनापितमिति ॥५०॥ क्षीरधिप्लवकृतोद्गमैरिव प्लावितेऽशुभिरलिग्मदीधितिः । व्योम्नि मज्जनभवेन शक्तिः सश्वरम्भिव गतेन लक्षितः ॥५१॥ क्षीति-अतिग्मदीधितिरुपन्द्रः जनैरित्याहारीम, लक्षिा , नेम ? गतेन गमनेन, किं पनन् ? सवरन् प्रयतमाना, क इवोत्प्रेक्षितः ? शहित इन, केन ? मज्जमवेद, य? मोम्ति नसि, कधम्गुते ? अंशुभिः किरणः प्लादिने प्रलोडित, करितोशितः क्षोधिप्लाद कृतोद्गमैरिय क्षीरस मुद्रपूरविहितोपपत्तिभिरिवेति । ५१॥ भोगसागरपरिक्रमचौरा रागिणो जलपथे कृतकृत्यान् । अध्यरोहदिव जेतुमुदस्त्रश्चन्द्रमण्डलतरण्ड मनङ्गः ॥५२।। भोगेति-मनाङ्गः कवयः चन्द्रमाडलतरण्डम् अध्यरोधिय आरूढनानिव, कथम्भूतः ? उदात्र: उत्ताल शस्त्रः किर्तुम् ? रागिणः कानुकान् जेतुम्, स्थम्भूतान् ? योगसागरपरिश्रमचोरान् भोगसमुद्रमार्गतमा सन्, पुनः कृतकृत्यान् वृतापिना, का जेतुम् ? जल्पथे जलना ।।५२ यह चन्द्रमा नहीं है शापितु कामदेयके प्रस्त्रोंपर धार रखने के लिए शाग ( खराद ) का चक्र है। प्राकाशमें ये तारे नहीं खिले हैं बल्कि मदनके अस्त्रोंफो खरादपर बढ़ाने उड़े हुए भागोके पतंगोंका समूह ही है। वह सोचकर हो रूठी हुई फामिनियां काँप उठी थीं ॥ ४६॥ सूर्यके द्वारा सताये गये और अपने पदों ( किरणों ) पर आश्रित ( खिलनेयाले) कुमुद-समूहको देखकर बैरको बांधे चन्द्रमाने ( सूर्य के प्राश्रित ) चनयाझ-युगलों तथा कमलोंको अधिफसे अधिक सतानेको इच्छा की थी ॥ ५० ॥ क्षीरसागर के पूरके बहावके समान चन्द्रमाकी घयल किरणों के द्वारा प्राफाश व्याप्त हो जानेपर शान्त-शीतल किरणों का स्वामी चन्द्रमा स्थस्य शंका (कहीं सूब न जाऊँ ) में पड़ गया था। फलतः पूधनेके भयसे सावधानीपूर्वक जाता हुआ-सा वह देखा गया था ॥ ५१ ॥ १. औपच्छन्दसिक वृतम् । २. स्वागता वृत्तम् । ३. रथोद्धता वृतम् । ४. स्वाग वृत्तम् ।

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