Book Title: Dvisandhan Mahakavya
Author(s): Dhananjay Mahakavi, Khushalchand Gorawala
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 346
________________ सप्तदशः सर्गः ३३१ अभ्युद्गतवानिव किमनुशय्य ? तीव्रं सोढुमशक्यम् आत्मनि दारुण्यं दारुणत्वम् कथम्भूतः ? शीतः शीतलः ॥४५॥ शनैः समारुह्य नमोऽनुरागं जहाँ शशी लोकहितोद्यतोऽपि । प्रायेण सर्वोऽप्यधिरूढ संपद्व्येपोढ पूर्वस्थितिरीदृगेव ॥ ४६ ॥ पनैरिति णोः पूनम ने समारुह्य अनुरागं जहो पक्तवान् कथम्भूतः ? लोकहितोचतोच, युक्तमेतत् य चन्द्रसम एव सर्वोऽप्यपढपूर्वस्थितिमुक्तर्वस्थितिर्भवति कथम्भूतः सन् ? अधिरूढसंपत् कथम् ? हि स्फुटं प्रायेण बाहुल्येन ॥४६॥ चन्द्रो वातः शीतकं चन्दनं च चोदेवासीदुष्णकं कामुकानाम् । निर्द्वन्द्वं वा चन्द्रमश्छद्मनाभू दे कच्छत्रं प्राभवं मन्मथस्य ॥४७॥ चन्द्र इति चन्द्रः जातो वायुः शीतकं कल्हारं चन्दनं श्रीखण्डने सर्वम् उष्णकं दाहकम् आसीत् सञ्जातम्, नेपालु ? कामुकानाम् कामिन्दाम् केषु सत्सु ? क्षोदेषु कामजनितपीडासु सतीषु वा अथवा अभूतम् किम् ? प्राभवं प्रतुत्वम् कस्य ? मन्मथस्य, कथम्भूतम् ? एकच्छत्रम् केन ? चन्द्रमश्छचना चन्द्रव्याजेन कथम्भूतं प्राभवम् ? निर्द्वन्द्वं विपक्षरहितम् ||४७|| माधवेन मधुना स्मरेण वा को गयेव महते च तोषितः । इत्यहं पुरवशः स्फुटन्निव स्वल्पतारकगणः शशी बभौ ||४८ || माघवेनेति — शशी चन्द्रः बभी रेजे, कीदृश: ? स्वरतारकगणः कथम्भूतः ? अवशः स्वाधीनः, पुनः युक्तिः कि कुर्वन्नित्र ? स्फुटन्निच, कम् ? गतिः, तदाह- माघवेन वरान्तेन मधुना मद्येन स्मरण कर मयेव महते मां विना कस्तोषितः अपि तु न कोऽपि ॥४८॥ अपने तेजसे लपायी गयो सृष्टिको दयापूर्वक ठण्डा करनेके लिए ही अपने तीक्ष्ण तथा दारुण प्रताप के लिए पश्चात्ताप करता सूर्य हो मानो ठण्डा होकर चन्द्रमाके रूपसे रात्रि में निकला था ॥ ४५ ॥ संसारका हित करने में तत्पर होते हुए भी चन्द्रमाने अनुराग ( लाली ) को प्राकाशमें ऊपर उठकर छोड़ दिया था । उचित हो है क्योंकि सभी समुन्नत अवस्थाको प्राप्त करके प्रायः इसी प्रकार पहलेको अवस्थाको छोड़ देते हैं ॥ ४६ ॥ safares जात होते ही प्रेमियोंके लिए शीतल चन्द्रमा वायु तथा अत्यन्त ठण्डा चन्दन भी गरम लगने लगा था । अथवा यों कहिए कि चन्द्रमाके व्याजसे कामदेवका एकच्छत्र राज्य हो गया था और कोई भी उसके ( कामदेवके ) सामने खड़ा होनेनें समर्थ न था ॥ ४७ ॥ वसन्त ऋतु अथवा मदिरा अथवा कामदेव, इनमें से कौन मेरे समान है तथा मेरे बिना इनमें से किसका सन्तोष होता है ? ( अर्थात् किसीका भी नहीं ) इस प्रकारसे अहंकारमें मस्त, स्वाधीन होकर फैलता हुआ-सा चन्द्रमा थोड़े-से तारोंके साथ सुशोभित हो रहा था ॥ ४८ ॥ १. उपजातिश्छन्दः । २, टीकायां सम्पत् + अपोढ विग्रहकरणात 'द' मात्रं प्रतिभाति । मूलानुसारीविग्रहस्तु "सर्वोऽपि व्यपोष्ट इति । " ३ रथोद्धृतावृत्तम् ।

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