Book Title: Dvisandhan Mahakavya
Author(s): Dhananjay Mahakavi, Khushalchand Gorawala
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 338
________________ सप्तदशः सर्गः क्षतजप्रवाहनिवहस्य समरभुवि सर्पतो द्विषः । रागपटलमधिरूढमिव द्युतलानि सान्ध्यमरुणं बभौ महः ॥२७॥ क्षतजेति-साध्यं सन्ध्यासमुत्पन्नं महः तेज: बों रराज, कथम् ? अरुणम्, किमिवोत्प्रेक्षितम् ? द्युतलानि अधिरूढम्, क्षतजप्रवाहनिवहस्य रक्तपूरसमूहस्य रागटलमिव, कयम्भूतस्य ? समरभुवि रणभूमौ दिशः सर्पतो गच्छतः ।।२७।। अथ वारुणीरुचिरभाजि न परममुनाम्बरस्थितिः । क्वापि रविश्वपतन्भविता तदितीव तद्गतमगामि सन्ध्यया ॥२८॥ अथेति-- अथ सन्ध्यावर्णनानन्तरं न परं केवलमभाजि सेविता वारुणी रुचिः पश्विमा दीप्तिः, केन? अमुना रविणा, तथाभाजि त्यक्ता, का ? अम्बरस्थितिः, तथा क्याप्यवपतन् भविता तदितीव भविष्यति रविः । अत्र लुप्तोपमा बोध्या । यथामुना मद्यपेनाभाजि सेविता, का ? वाहणी रुचिमंदिराभिलाषः, तथाभाजि भग्ना, का ? अम्बरस्थितिः वस्त्र स्थितिः, अमुना रविणा, तथा क्वाप्यवपतन भविता तत् ततोऽनन्तरमगामि गतम्, किम् ? तद्गतं रविगमनम्, क्या ? सन्ध्ययेति ॥२८॥ परतस्तमांसि पुरतोऽस्य सवितुरभवन्महोद्यमः। दिग्विजयमधिकरोति किमु क्षभितं हि पश्चिममचिन्तयन्प्रभुः ॥२६॥ परत इति-अभवन् संजातानि, कानि ? तमांति अन्त्रकाराणि, कथम् ? परतः पश्चात् पृष्ठत इत्यर्थः, पुरतोऽग्रतोऽभवन्, कोऽसौ ? महोद्यमः, कस्य ? अस्य मवितुः सूर्यस्य युक्तमे सत्, उ अहो किमवि करोति, अपि तु नेति भावः, कोऽसौ प्रभुः, किम् ? दिग्विजयम्, कि कुर्वन् ? अचिन्तयन् अवितर्कयन्, किम् ? पश्चिमम्, कथम्भूतम् ? झुभितम्, कथम् ? हि स्फुटम् अकुटिलत्वमुपदशित मिति ।।२९॥ उपवन्यभूम्युपगिरं च दिवसमुपलाय वायत् ।। प्राप तिमिरमृतमभ्युदयं किल कं न यापयति दुर्गयापना ॥३०॥ उपेति---प्राप प्राप्तम्, कि कर्तृ ? तिमिरम्, कम् ? अभ्युदयम्, कथम्भूतम् ? उरुं गरिष्ठम्, कि कुर्वन् ! वायत् अनिल मानम् ? किन ? दिवसम्. किं कृत्वा ? पूर्व मुपलाय लीनं भूत्वा, कथम् ? समरभूमिमें बहते हुए शत्रुपोंके रक्तको धाराके पूरकी लालीको प्राकाश-पटलपर फैलाती हुईके समान सन्ध्याकालीन लालिमाकी कान्ति समस्त आकाशके तलमें व्याप्त हो गयी थी ॥२७॥ ___ सन्ध्या समय सूर्य (रूपी मद्यप) के द्वारा केवल पश्चिम दिशाको कान्तिरूपी मदिरा वारुपी का ही प्रानन्द नहीं लिया गया था अपितु वह प्राकाश (कपड़ों) में भी न रह सका था। तब सूर्य (मद्यप) कहीं जाकर गिर गया होगा, यह सोचकर सन्ध्या (मद्यपकी खी) भी सूर्य (मद्यप) के रास्तेपर चली गयी थी ॥२॥ महा पुरुषार्थक [कारण प्रकाश] सूर्य प्रागे-आगे चला जा रहा था और इसके पीछे-पीछे अन्धकार बढ़ता जाता था। यह देखकर पश्चिम दिशामें क्षोभ फल गया था, क्योंकि समय पुरुष बिना संकाल्पके (अनायास हो) दिग्विजय कर डालते हैं ॥२६॥ बनोंके निकटकी भूमिमें तथा पहाड़ोंकी घाटियोंमें छिपकर दिनको काटनेवाला अन्वकार रात्रि होते ही विस्तारके शिखरपर पहुंच गया था। ठीक ही है। ऐसी कौन-सी 1. 'द्विषः' प्रासङ्गिक मविष्यति ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419