Book Title: Dvisandhan Mahakavya
Author(s): Dhananjay Mahakavi, Khushalchand Gorawala
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 342
________________ सप्तदशः सर्गः ३२७ श्रय भारतीयः-तर भुवि कोकनिष्ठ इव चक्रवाकतत्पर इव सहजपरिपीडनो निसर्गपीडक: एनपरितापगुण: तपनस्य परितापगुणस्तपनपरितापगुणः सूर्यस्य सर्वव्यापी तापगुण इत्यर्थः, अभवत् स स्वयमस्तमेति, कयम्भूत: ? असहः, पुन: उद्यतः, कथम् ? एवं कोक विनाशं नेष्यामीत्यङ्गीकारेण । पत्र रात्रिविभागे भवितेति शेषः ॥३८॥ विनिवार्य तं निजकरण निशि गुरुतमोऽभिमातुलम् । प्राप विधुरपटुरभ्युदयं महसाञ्जनोऽस्य स तुतोष सङ्गतः ॥३६॥ विनिवार्येति-आजनो धञ्जनातचयो हनुमान् अभ्युदयम् पाप प्राप्तवान्, केन ? महसा तेजसा, किं कृत्वा ? पूर्व विनिवार्य सम्बोध्य, कम् ? तं भरतम्, केन कृत्वा ? निजकरेण स्वहस्तेन, कथं यथा भवति अभिमातुलं मातुलेन द्रोणेन सहेत्यर्थः, कस्याम् ? मिशि रात्री, तुतोष जहर्ष, फोऽसौ ? स मातुलो द्रोणनामा, कस्मात् ? सङ्गतः मङ्गाद, कस्य ? वस्याञ्जनम्य, कथम्भूत: आञ्जन: ? गुरुतमः गरीयान, पुनः विधुरपटुः दुःखहर्ता। पथ भारतीय:-विधुश्चेंन्द्रः महसा तेजसाम् अभ्युदयं निशि रात्री प्राप, किं कृत्वा ? पूर्व विनिवार्य कि तत्तमः, केन कृस्था ? निजकरेण स्वकीयकिरणेन, कयम्भूतेन ? अभिमान अभिमेति विचि रूपम्, तृतीयायां परत आकारम्य लोपः, परिच्छेदकेनेत्यर्थः, कथं तमः ? गुरु धनम्, कथम्भूतो विषुः ? अपटुबंलिः, कथम्भूतमभ्युदयम् ? अतुल मनुपमम्, तथा प तुतोष, कोऽसौ ? जनः, कस्मात् ? यस्य विभोः सङ्गतः सङ्गात् ।।३९॥ स वामक्षु द्रोणोरुचितमुदयात्संमुखगते विधौ रागोद्रेकं धृतवति तमोथैकनिलयः। कथंचिच्चित्तस्य स्थितिमिव विशल्यां प्रहितवान् विहातुं शक्यात्मप्रकृतिरनुबद्धान हि सुखम् ॥४०॥ संसारमें जिस प्रकारसे यह निर्वाध घोर बमन हुआ है उसको सहने में असमर्थ वह महान् धर्मराज, अपने प्राप ही समाप्त-सा हो रहा है । यद्यपि सूर्य के समान प्रतापी है और [सत्यको प्रतिष्ठाके लिए] सतत प्रयत्नशील है। रात्रिमें चक्रवाकोंपर जो स्वाभाविक महाविपत्ति (विरह) पाती है उसको न देख सकनेके कारण ही प्राकाशचारी अत्यन्त तेजस्वी सूर्य भी स्वयमेव अस्त हो जाता है॥३८॥ भरतके दुःखको हाथ फेर करके शान्त करने के पश्चात् रातमें ही महान संकट हरण हनुमान् (प्रांजनेय) बड़े वेगके साथ द्रोणाचलको प्रोर (अभिमातुलम्) बढ़ गये थे। बह द्रोणाचल भी इसको अपने ऊपर पाकर परम प्रसन्न हुमा था । पुण्याधिकारियों (महसां) के भी परम पूज्य तथा दुःखियोंकी (विधुर) सान्त्वनामें कुशल श्रीकृष्णजीने रातको ही मामाकी मोर जाते इसे हाथसे रोक दिया था। और वह (भीम) इसके सहवासमें सन्तुष्ट हो गया था और प्रभ्युदयको प्राप्त हुआ था। अपूर्ण चन्द्रमा प्रकाशकारी (अभिमत) लम्बे-लम्बे अपने किरणोंके द्वारा घोर (गुरु) अन्धकारको दूर करके अनुपम (मतुलम् ) उदयको प्राप्त हुआ था। संसारके लोक भी इसके प्रकाशमें आनन्दित हुए थे ॥३६॥ १. दुःखस्फोटनदक्ष इत्यर्थः-प० .। २. विधुः श्रीवरसलान्छनः' श्रीकृष्णाः । चन्द्रपरो तृतीयोऽर्थः ।

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