Book Title: Dvisandhan Mahakavya
Author(s): Dhananjay Mahakavi, Khushalchand Gorawala
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 319
________________ ३०४ हिसन्धानमहाकाव्यम् परस्परस्य किं कुर्वतेव ? इच्तेवाभिलषतेव, कि कर्तुम् ? शिलाशासनं शिलोत्कीर्णप्रशस्तिम्, कस्य ? ध्रुवस्य स्थिरस्य शौर्यायतनस्य शौर्यजीवस्य वीरश्री कीर्तनस्येत्यर्थः ॥ ५९ ॥ महीक्षितां दक्षिणबाहुदेशे शरक्षतेऽभूत्क्षतजप्रवाहः । वीरश्रयो लाक्षिकपादरागः क्रान्तः श्रमात्प्राप्त इवाभावम् ||६०|| महीक्षितामिति - महीक्षितां राज्ञां दक्षिणवाहुदेशे क्षतजनबाही रक्तप्रवाहः अभूत् संजातः क इवोत्प्रेक्षितः ? वीरश्रियो लाक्षिकपादराम इव लाक्षया रक्तो लाक्षिकः स वासी पादरागश्च लाक्षिकपादरागः, कथम्भूतः ? क्रान्तः संक्रान्तः सन् पुनः श्रमात् आईभवं द्रवत्वं प्राप्तः ||६०३१ नृपास्तिटेषु समुद्रतेषु चित्तेषु रत्नैर्मकरगणैश्च । द्विषां निचरूनुर्विशिखान्विरोधावेलाद्रिकूटेष्विव चक्रिणस्ते ॥ ६१ ॥ वृश इति नृपाः विरोधात् द्विषां शत्रूणां तिटेषु मुकुटेषु विशिखान् वाणान् निचतुः निखातवन्तः कथम्भूतेषु ? रत्नमंकरीगणैश्च निचितेषु रचितेषु पुनः समुन्नदेषु क इव ? चक्रिण इव, गया विरोधात् विशिखान् रिपि राजा इतीश्वराः केशवतो भवन्तः साधारणं प्राप्य रणं सलज्जाः । यावन्मनः स्थाम पुनः प्रजहुरप्यन्यसाम्यं महतां हि दैन्यम् ॥६२॥ पूर्वसधारणं इतीति इति ईश्वराः यावन्मनःस्थाम मनोबलं तावत् पुनरपि प्रजह: प्रहरन्ति स्म किं कृत्वा ? नागरावरणं प्राप्य किं कुर्वन्त ईश्वराः ? भवन्तो जयमानाः कस्मात् ? केशवः केशवात् केशवगृह्या इत्यर्यः पुनः सलज्जाः युक्तवत् हि स्फुटं महतां सताम् अन्य साम्यं परोपमां दैन्यं दीनत्वं स्यादिति ||६२|| यावन्निमेषः पतितोऽपि नैकस्तावत्पपातेपुर सावसंख्यः | न यावदेकः पततीपुरेषां सुताः परेषामपतनशेषाः ॥६३॥ स्थिर योद्धा तथा पराक्रमके भण्डार समस्त योद्धात्रोंने अपने से होन शत्रुनोंके वक्षःस्थलोंको प्रपने-अपने नामके लेखयुक्त वाणोंसे भेद दिया था । मानो अपनी विजयका शिलालेख लगाने की इच्छासे हो उन्होंने ऐसा किया था ॥ ५६ ॥ योद्धा राजाधोंकी दायीं भुजापर बारसका घाव होनेपर उससे रक्त बहने लगा था । यह बहता रक्त भी बड़ा परिश्रम करनेसे प्राये पसीनेसे विद्यले वीरलक्ष्मोके लाखसे रंगे पैरोंके रंग ( श्रालता) के समान शोभित हो रहा था ॥ ६० ॥ रत्नों तथा अनेक कलगियों (मकरी) से भरे हुए शत्रु राजाद्योंके ऊँचे-ऊंचे मुकुटों में योद्धा राजाने पैर के कारण बालोंको उसी तरहसे गाड़ दिया था जिस प्रकारसे चक्रवर्ती तरवर्ती पर्वत के शिखरोंको पार करता है [बेलात्रि भी ऊंचे होते हैं तथा रत्नों और मकरोंसे व्याप्त होते हैं ] ॥ ६१ ॥ श्री नारायणके पक्ष में प्राये प्रधान राजा लोग उक्त प्रकारके साधारण युद्धको करनेके कारण लज्जित थे फलत: इन्होंने अपने मन और तनकी पूरी दृढ़ता और साहसके साथ पुनः घोर प्रहार करना आरम्भ किया था । उचित ही है, क्योंकि दूसरेकी बराबरी करना भी महापुरुषोंके लिए दीनता दिखानेके हो समान है ॥ ६२ ॥ १. निचनुरिति प० ज० 1

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