Book Title: Dvisandhan Mahakavya
Author(s): Dhananjay Mahakavi, Khushalchand Gorawala
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 333
________________ ३१८ दिसम्घानमहाकाव्यम् निजपौरुपं हि गुहाध्य कालजिह का संहतिः । भानुमत इव न हन्ति रुचिं धनदेहबन्धनमयीति नामवीत् ॥१०॥ निजेत्तिनामवीत् बध्नाति स्म, कोऽसौ ? केशवः, किम् ? कवचम्, कथम् ? पुरुषस्य निजपौरुष कवचं स्यात्, संवृतिः कस्य मचि दीप्ति न हन्ति अपितु सर्वस्य, कथम्भूता ? घनदेहदाधनमयी धनदेह एव बन्धनं तेन निर्वृत्ता मेघशरीरमयीत्यर्थः ।।१०11 उदयाद्विभूतिरिव भोगगतिश्वि नवाप्रसादतः । सर्वधतिरिव परं पुरुष जयदेवता गणसिथात स्वयम् ॥११॥ .. उदयादिति-जगदेवता जयश्रीः परं पुत्ष पुरुषोतमं स्वयं परप्रेरणमन्तरेणेव अवृत वृतवती, करम्भूता ? गणनि था गणक्ष्य पूरगा, फैव ? विभूतिवि, कस्मात् ? उदयात्, केव ? भोगगतिरिख भोग. विषया प्रवृत्तिरिय, कस्मात् ? नयात् भोगविषयाचा नीतेः, फेव ? सर्वतिरिव समस्तसन्तोष इव, कस्मात् ? प्रसादतो नयविषयाया. प्रसन्नताया इति ॥११॥ ध्वजमारोह गरुडोऽस्य रणमिव दिशतुरुच्चकैः । ध्मातुमिव कुपितवह्निमयं हृदि पाञ्चजन्यमदपूरि वैरिणः ।।१२।। ध्वजमिति-गरुड: अस्य विष्णा: ध्वजम् आरुरोह आरूढवान्, क इवोत्प्रेक्षित ? उच्चैरतिशयेन रणं सङ्ग्रामं दिदृक्षुरिव द्रष्टुमिच्छुरव, तथा अयं विष्णु: परिणी हदि पिताल मानुमिव सन्धुकितुमिव पाञ्चजन्यं शङ्खम् उदपूरि पूरितवान् ।।१२।। निनदेन तस्य मिहिरस्य शरभ इव सम्मुखं रिपुः । प्राप्य कणपनिकरण रथं परतो युगद्वयसमस्यदुद्रवत् ॥१३॥ निनदेनेति-रिपुः शत्रुः फणपनिकरण बाणसमूहेन परसः पश्चात् युगद्वयसं मुगपरिमाणं यथा तथा रथम अभ्यदुद्रुवत् अपसारितवान्, किं कृत्वा ? पूर्व तस्य पाञ्चजन्यस्य निनदेन व्यनिना सम्मुखं प्राप्य, क हव ? शरभ इव, केन ? मिहिरस्प मेघस्य निनदेनेति ।।१३॥ शत्रुके साथ हुई इस पहली मुठभेड़को नारायणने प्रात्मीय जनोंसे होनेवाली स्नेह भेंटसे भी बढ़कर माना था, क्योंकि महापुरुषोंको मित्रमण्डली विशाल होती है। किन्तु उनकी अनुपम कीतिका प्रसार तो शत्रुके (बमनके) कारण ही होता है ॥६॥ अपना पुरुषार्थ ही मनुष्यका सच्चा कवच है। घनघटाके घिरनेसे सूर्य के समान किसीको कान्तिको एया प्रावरण (फवव) नहीं घटाता है ? अपितु घटाता हो है । इसलिए हो नारायणने युद्ध में कवच नहीं पहना था ॥१०॥ जिस प्रकार पुण्यकर्मके उदयसे अपने भाप विभूतिकी प्राप्ति होती है अथवा नीति मार्गके अनुसरणसे भोगोंको परम्परा चलती है अथवा चिसको निर्मलतासे सब प्रकारका धैर्य अनायास ही प्राप्त हो जाता है उसी प्रकार सैन्यसनहसे घिरी पूर्ण विजयलक्ष्मीने अपने-आप ही परम-पुरुष विष्णुको परख दिया था ॥१॥ नारायणको गरुङ्गक चिह्नले युक्त ध्वजा प्राकाशमें फहरा रही थी मानो चिह्नका गरुद्ध युद्ध को देखने की इच्छासे हो ऊपर चढ़ गया था। बैरियोंको हृदयोलें धुंधाती क्रोधको अग्निको झपकनेके लिए हो नाराबरणने अपने शंखको फूका था ॥१२॥ शंखको ध्वनिको सुनकर रावण-जरासंध शत्रु उती प्रकार सामने मा गये थे जैसे marwarananpanurunnr-rrrrrrrrrrrrrrrr

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