Book Title: Dvisandhan Mahakavya
Author(s): Dhananjay Mahakavi, Khushalchand Gorawala
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 322
________________ पोडशः सर्गः ध्वनत्सु तूर्येषु शिवाङ्गनासु भेजे समङ्गस्यरवोद्यतासु । सशोणिता भूः परिणीयमाना कन्याऽभिषिक्तेव कषायतोयैः ॥७०॥ ध्वन सिसि– भूमिः भेजे रराज, केषु सत्सु ? तुषुवाचे ध्वनत्सुषुपिया शिवाङ्गनासु शृगाली गत्यरवोद्यतासु, गलस्यायं गल्यः स वासी रवस्तस्मिन्नुद्यतासु कथम् ? समं युगपत् कथम्भूता भूः ? यति सरलता के भेजे ? परिणीयमाना कन्येव कथम्भूता कन्या ? वषायतो: अभिषिचता के सत्सु ? तूप घ्वत्सु तथा शिवाङ्गनासु सभर्तृकासु कामिनी समङ्गस्वरवोद्यतासु मङ्गलमर्हति मङ्गल्यः स चासो खप्तेन सह वर्तमानं यत् कर्म तस्मिन्नुयतासु ॥७०॥ ३०७ इत्युद्यतं राजकमन्यपक्षं प्रत्युद्ययास्कमुपेन्द्रगृह्यम् । स्वयन्तं सदनेऽमिमित्रं रणेऽम्पमित्रीण मुदारमाहुः ॥ ७१ ॥ इतीति वेन्द्रशृह्यं राजकं नारायणपक्षीयो नरेन्द्रसमूहः उद्यतं अन्यपक्षं प्रति उत्कन् उत्कण्ठितं सत् इति उक्तप्रकारेण उद्ययो उद्गम् युक्तमेतत् श्राहन्ति के ? सूरयः, कम् ? अभ्यमिश्रणं कि मनुष् ब्रुवन्ति ? अभिमित्रं हायस् क ? रखे सङ्ग्रामे कथम्भूतम् ? उदारम् किं कुर्वाणं सन्तम् ? स्वमात्मानं सदने गृहेऽर्पयन्तम् ।।७१। स्वं पूर्वकार्य प्रविशद्भिरश्वैरमुक्तमार्गे रथकर्मभारैः | कृच्छात् कृताधैरिव जन्यभूमिः ॥ ७२ ॥ अतारि तिर्यङ्नरको स्वमिति -- स्वमात्मीयं पूर्वकायमः ङ्गं प्रविशद्भिरश्वैर्वाजिभिः जन्यभूमिः सग्राममेदिनी अतारि अवतीर्णा कथम्भूतैः ? अगुक्तमार्गेः अत्यसंचरेः पुनः रथकर्मभारेः रकमंत्र भारो येषां तैः कपयारि ? कृच्छ्रात्, निर्मक, कथम्? सिक्कुच्छ्र । दित्यव्ययं विभक्तिप्रतिरूपकम् कष्टेन कथन्ता ? रोपयद्धा नराणां यः कोरः तेन बद्धा, कैरिवावारि ? कृतापैरिव विहितपापैः प्राणिभिर्यथा जन्यभूमिः कृच्छादुत्तो कथम्भूता ? निर्यनरकोपबद्धा विर्यचश्च नरकाश्च निर्यडनरकास्तैरुरबद्धा, कथम्भूतैः ? कृताद्यैः प्राणिभिः ? अमुक्तमगैः त्यक्ततम्य दर्शनज्ञानचारिवलक्षणपथिभिरथाथवा किं कुर्वद्भिरिव ? स्वमात्मीयं पूर्वकार्य अनेक प्रयोज्यलक्षणं शरीरं कर्मभारे फर्मसमूहैः प्रविशद्भिः ||७२|| रक्तरंजित युद्धभूमि रंगीन पानीसे नहलायी गयी और परियके लिए तैयार कन्या के समान लगती थी। क्योंकि रामेरियां बज रही थीं, इसके साथ-साथ विधारियोंके गलेसे (पत्र) 'हुथ' की तान लग रही थी [ महावर आदि श्रृंगारसे सज्जित कन्याके विवाह भी बाजे बजते हैं तथा सौभाग्यवती (शिवा) नारियाँ ( अंगना ) उत्साह के साथ मंगल गीत गाती हैं ॥ ७० ॥ राजा लोग दालहर उपेन्द्र श्री लक्ष्ण अथवा श्रीकृष्ण के पक्ष के क्योंकि वे लड़ाईके लिए उत्सुक तथा तैयार भी थे। राजभवनमें सर्वदा सिके श्रागे-पीछे चलनेवाले (अभि-मित्र) और रानें अपनेको बलिदान करके भी शत्रुनों पर टूट पड़नेवालों (श्रम अभित्री) को हो, वास्तव उदार कहा जाता है ॥७९॥ रयोंके सबके भारसे दुहरे तथा अपने रास्ते को पकड़े जाते-जाते शरीरके अगले भागको तिरछे-तिरछे शत्रुसेना में पेड़ते हुए घोड़ोंने घोर पाषियोंके समान बड़े पटले बुद्धभूमिको पार किया था क्योंकि योद्धाओंके क्रोधके कारण इसमें बाधाएं ही बाबाएं थीं ( नर-कोप- बद्धा ) [ मोनाले विबुल, कर्मोके बन्धन से लदे और अपने-अपने पूर्वोत शरीरीको धारण करते हुए पापी जीव भी मोक्षके मार्ग सम्यक् दर्शन -ज्ञान-वारित्रको न

Loading...

Page Navigation
1 ... 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419