Book Title: Dvisandhan Mahakavya
Author(s): Dhananjay Mahakavi, Khushalchand Gorawala
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 315
________________ द्विसन्धानमहाकाव्यम् पुनरपि कथम्भूतः ? कथंचिन्महत्ता कष्टेन गुरुणा उपेक्षितः, क इव ? शिष्य इव, यथोदियाय शिष्यः, कि कम् ? कत्तुम्, किम् ? यथेष्टम्, कथम्भूतः ? उपेक्षितः, फेन ? गुरुणा, कथम् ? कथंचित्, पुनः कयम्भूतः ? नियमेन परिभित कालेन तेन निबद्ध. निरुद्धः पुनस्तोत्रासिधारावतबचित्तः, असिधारेव व्रतम् असिधाराव्रतं तीने असिधारावते बद्ध चित्तं येन स योक्तः ॥ ४५ ॥ . आस्थायुकः स्यन्दनमन्तरिक्षमापातुकरतोयनिवरशेषः . विपक्षयुद्धान्यभिलापुकोऽयं बेलोधनो ग्राह इबावभासे ॥४६॥ आस्थायुक्त इति--अयम् असो अशेषः समस्तो राजा स्यन्दनं रथम् दास्यायुक अधितिष्ठन् आवभासे शुशुभे, कथम्भुनः ? अन्तरिक्ष गगनम् आपातुक: आपतन्नुत्प्लवमान इत्यर्थः, विपक्षयुद्धानि शरणानि अभिलाकोऽभिल पन्, के इव ? ग्राह इव, यया जलचरनिशेयः, कयम्भूतः ? वेलोद्यतः वेलोच्छलिः, कस्य ? तोनियः समुद्रस्य, कथम्भूनो ग्राहः ? स्यन्दनं प्रबाहम आस्थायुकः पुनः अन्तरिक्षम् आपातुकः पुनः विपक्षयुद्धानि अभिलापुकः ।। ४६ ।। भ्रमणमात्रेण परस्य भङ्गं ज्याघातमात्रेण नृपाभिधातम् । ते चक्रुरारोपितचापचक्राः स्त्रायासतन्त्र हि जयं निराहुः ॥४७॥ भूभनमात्रेणेति–ते नरेन्द्राः परस्य शत्रोः भङ्ग तेजोभिभवं भूभङ्गमात्रेण चत्रुः कृतवन्तः, मृषाभिभातं राजननं ज्याघातमात्रेण मो/विस्फा रमाय चक्रुः कृतवन्तः । कथम्भूताः ? आरोपितचापचका: कुण्डली कुनश रासनसमूहाः, युक्तमेतत्, हि यस्मात् कारणाग्निरानिर्वदन्ति, के ? विद्वज्जनाः, कम् ? जयन्, कयम्भूतम् ? स्वायासतन्त्रम् आत्मप्रयत्नाधीनमिति ।। ४७ ॥ स्थिते समर्थे सति दक्षिणाङ्गे वामोऽङ्गभावः प्रथमोऽग्रगोऽभूत् ! . अकल्पभूयोपनतं विनेतुं जन्ये व्यवस्यन्निव जन्यमेपाम् ॥४८| स्थित इति-एषां राज्ञां वामोऽङ्गभागः प्रथमोऽग्रगोऽभूत. क्व सति ? दक्षिणाङ्गे समर्थे स्थितेऽपि सति, कि कुर्वन्निव ? व्यवस्यन्निब निश्चिम्बग्निक, किम् ? जन्य वामोऽयमिति प्रतिकूलोऽयमिति जनापवाद विनेतु स्फोट यितुम्, क्व ? जन्ये समामे, कध-भूतं जन्यम् ? अल्पभूयोपन्तं न कल्पस्प भायोजकल्पभूयमसंकल्पत्वं तेन प्रवृत्तमिति ।। ४८ ॥ बड़ी मुश्किलसे पड़ी थी [चिरकालसे नियमोंके पालक और अभिधारा अलके लिए अभ्यस्त शिष्यको भी गुल्के द्वारा स्वतन्त्र कर दिये जानेपर भी स्वैराचार करनेकी हिम्मत नहीं पड़ती है] ॥४५॥ रथोंके ऊपर श्रारूद, प्राकाशमें उड़ते हुएके समान तथा ग्रुपक्षसे युद्ध करनेके लिए अत्यन्त उत्सुक यह समस्त राजसमूह, समुद्र के किनारेपर उछलकर आये मगरके समान शोभित हो रहा था [किनारे के पास उभरा मगर भी प्रवाह (स्यन्दन) के विपरीत चढ़ता है और पानी के भार ऐसी छलांग लेता है कि उड़ता-सा प्रतीत होता है ॥ ४६॥ धनुषको पूरा खींचकर आगे बढ़ते हुए इस राजसमूहले अपनी भृकुटिको टेढ़ा करके ही शत्रुको झुका दिया था और धनुषको ओरोकी फटकारफे द्वारा ही शत्रु को मार दिया था। उचित ही है, क्योंकि विजय अपने-अपने पुरुषार्थक ही प्राधीन है ॥ ४७ ॥ युद्धके प्रारम्भ होनेपर शरीरके सबल दक्षिण भागके रहते हुए भी धनुष खींचते समय योद्धानोंका बाँया भाग सबसे पहले प्रागेको ओर निकल आया था। इसपर कवि 1, सुपप्य मान यः। - - .- . . -m re

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