Book Title: Dvisandhan Mahakavya
Author(s): Dhananjay Mahakavi, Khushalchand Gorawala
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 311
________________ . द्विसन्धानमहाकाव्यम् कथम्भुतं नीलम् ? ज्वलत्प्रकोपानलं ज्वलन् प्रकोप एवानलो यस्य तं पुन: यमाकारं यमस्येवाकारो यस्य तम् इत्ये कोऽर्थः, तथा अरिप्रजा नलं दृष्ट्वा नलाभिधानं वा नरेन्द्र वीक्ष्य भुवः संहारं शश ठू, कथम्भूता अरिजा ? जबलत्प्रतापा, कथम्भूतम् अन्य सैन्यम् ? वरूपिनीलङ्गमं वरूथिनी सेना लङ्घते इति तथोक्तम् । भारतीयः--अन्यसैन्यं कत्तुं शक शाजितवती, कि कर्मतापहाम् ? संहारम्, कथम्भूतम् ? अरिप्रजातम् शत्रुभवम्, कस्याः ? भुवः, कथम् ? अहाथ, किं कृत्वा ? यमाकारं यमस्य पुत्रस्यात् यमो नकुलसहदेवौ सयोराकारं गति दृष्ट्या, कि कुर्वन्तम् ? अन्यसैन्यं कौरदसैन्यम् उत्पत ता । अन्यन् पूर्वतमम् । तृतीयोऽर्थः ।।३६॥ स वानराणां पतिरुप्रसेनः किं वर्मणा स्यास्किल गर्मणेव । __ पराद्गृहीतेन मिति चित्र संनद्धवान् संनहनं न भेजे ॥३७॥ हिः स इति--पित्रमाश्चर्य स वानराणां पतिः सुग्रीवः समनं न भेजे, कघन्भूतः सन् ? सन्नद्धवान्, कथम् ? इति, मिल लोकोको, वर्मणा सनहनेन किं स्यात्, फयम्भूसेन ? परादिवरस्माद्गृहीतेन, कया कृत्वा ? भिया भयेन, फेन ? मणेर, कयम्भूनो वानराणां पत्तिः ? उनसेनः उग्रा सेनाऽस्य स तीव्रदण्ड इति शेषः। भारतीयः-- वायवा स नराणां पतिः उगोर जमनाहि नरेन्द्र गाने मरे। पं तुल्यन् ।।३७॥ दिधक्षवे लोकारातिसेनं संधुक्षमाणं द्रपदेन तेन । क्रोधाग्नयेाल्यत कोटिकल्पं भामण्डलेनोत्तपताकतेजः ॥३८॥ द्विः । दिधक्षेति--तेन प्रसिद्धन भामण्डलेन जानकीभ्राता नाकल्प्यत न कल्पितम् किम् ? अराति. सेनम्' अराजीना सेना अरातिसेनम्. कथभूतम् ? साधुक्षमाणम्, कस्म ? जोधामये कोपथहये, क्व ? द्रुपदे दारस्थाने, कथम्भूताय शोधाग्नये ? दिधक्षवे, कम् ? लोकम्, कि कुर्वता सता भामण्डले ? उत्तपता, किम् ? अर्कोलेज. सूर्यवत्रः, कथम्भूतमरातिसेनस् ? कोटिकल्पं कोटिप्रमाणम् ।। सोचती थी कि अब शीघ्र ही संसारका भी संहार जो जायेगा ( यमके समान संहारकर्ता तथा समस्त सेना (वरूथिनी) के भेदन (लंघन) में समर्थ नल नामले राजाको शगुरोनाको ओर बढ़ता देखकर, रावणके अकार्यके कारण कोषले जलती (ज्वलत्प्रकोपा) उसको प्रजा सोरती थी उसका ही नहीं अपितु विश्वका अन्त निकट है) [लेनाओंको परास्त (लंघन) करने में समर्थ, लपटें लेती क्रोधाग्निके समान जग, यमके समान भयानक प्राकृतिधारी (यमके नामज) अथवा युगल रूपसे उत्पन्न (यमाकार) नकुल और सहदेदको अाक्रमण करते देखकर ही प्रतिपक्षी (अन्य) कौरव सेना अपने राज्यकी समापिकी, उस कल्पनाको करके कोप उठी थी जो शत्रुनों पाण्डवों के द्वारा होनेवाली वा ॥३६॥ अाश्चर्य है कि दुर्दम्य सेनाके स्वामी दान के राजा सुग्रीवने [अथवा मनुष्यों (नरासां) के अधिपति (पति) उग्रसेनने युद्ध के लिए तैयार होकर भी कश्च नहीं पहना था! दह कहता धा कवचका क्या होगा ? शत्रुले रंद मात्र भय न खानेवाला हृदय ही पर्याप्त है ॥३७॥ सूर्यके तेजसे भी अधिक प्रतापी सीताके भाई प्रसिद्ध भारुण्डलने समस्त लोकको भस्मसात् करनेके लिए अत्यन्त प्रज्वलित अपनी क्रोवरूपी अग्निमें हबकी लकड़ी १. पराकोः अग्रहीतेन भिया मा शत्रुभग्रनुका सेति । इतस्मादाहीनेनेति । सम्प्रदाने द्वितीया।

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