Book Title: Dvisandhan Mahakavya
Author(s): Dhananjay Mahakavi, Khushalchand Gorawala
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 300
________________ षोडशः सर्गः साक्षादलक्ष्य दिवसो नु सोऽयं सृष्टेरियचावधिरेष कश्चित् । आशाः समूहन्निव राजलोकः संनह्यति स्म प्रतिकेशवस्य ||१०|| साक्षादिति -- तु महो साक्षात् परमार्थतः सोऽयं कश्चित् कश्चन किमलङ्घयो दिवसः संहार दिवस:, किमेष इयत्तावधिः कस्याः ? सृष्टेरिति किं कुर्वन्निव ? समूहसिव वितर्कयन्निव का ? आशा दिशः, सराजलोकः संनह्यति स्म सन्नहनं करोति स्म, कस्य ? प्रतिकेशवस्य प्रतिनारायणस्येति ॥ १० ॥ तमूर्जसारावणिमव्यपेतौ दुर्योधनं क्रोधपराक्रमौ तौ । दधानं पुलकात्तमङ्ग रागेण मीत्याप्यभवद्ध्वजिन्याः ॥ ११ ॥ २८५ तमिति - अभवत् संजातम् किम् अङ्गम्, कथम्भूतम् ? पुलका रोमाश्वगृहीतम् कयो: ? ध्वजिन्योः सेनयोः केन ? रागेण प्रीत्या तथा भीत्या भयेनापि किं कृत्वा ? पूर्व दृष्ट्वाऽवलोक्य, कम् ? तं लोकप्रसिद्ध रावण रावणस्यापत्यं पुमान् रावणिः इन्द्रजित् तं तथोक्तम्, कथम्भूतम् ? दुर्योधनं योद्धुमशक्यम् कि कुर्वाणं सन्तम् ? दधानं धरन्तम् की ? ती लोकोत्तरी क्रोधपराक्रमी, कयम्भूतौ ? अव्यपेतौ अपरित्यक्त, केन ? ऊर्जसा बलेन । अत्र स्वसेनाया रागेण परसेनाया भीत्या पुलकात्तमङ्गमभूदिति भावः । भारतीयपक्षे— रागेण भीत्यापि ध्वजिन्योः पुलकात्तमङ्गमभूत् किं कृत्वा ? पूर्व दृष्ट्या कम् ? तं लोकप्रसिद्धं दुर्योधनं तन्नामधेयं राजानम् किं कुर्वाणम् । अभी तो लोकोत्तरी कोषपराक्रमी दधानम्, कथम्भूतो ? अणिमव्यपेतो अणोर्भावः अणिमा तेन व्यपेतो अणुत्परित्यक्तौ प्राचुर्ययुक्तावित्यर्थः ॥ ११ ॥ नमस्यया संप्रति कुम्भकर्ण बलिं नवं संयुगभूतकेभ्यः । प्रदातुमुद्यन्तमिवारिरूपं दुःशासनं वीच्य जनश्चकम्पे ||१२|| नमस्ययेति -- जनो लोकः संप्रति अधुना कुम्भकर्ण कुम्भकर्णनामानं रावणभ्रातरं वीक्ष्यावलोक्य कि कुर्वाणमिवोत्प्रेक्षितम् ? संयुगभूतकेभ्यः संग्रामभूतसमूहेभ्यः बलि प्रदातुमुद्यन्तभिव, कया ? नमस्यया नमसि तेन कथम्भूतम् ? नवं नूतनम् कि बलि दातुम् ? अरिरूपम् अरीणां रूपम् अरिरूपं शत्रुशरीरम् अथवा अरय एवं रूपं यस्य बले। तमरिरूपं बलिम्, कथम्भूतं कुम्भवाम् ? दुःशासनं तीव्राजम् । भारतीयः पक्षः - चकम्पे, कोऽसौ ? जनः कथम् ? संप्रति किं कृत्वा ? पूर्वं वीक्ष्य कम् ? दुःशासनं दुःशासननामानं राजानं दुर्योधनानुजम् कीदृशम् ? कुम्भकर्ण कुम्भको नाम हस्ती कुम्भकः ऋणं यस्य स कुम्भकर्णः तं कुम्भकर्णं कुम्भकस्य स्वामिनमित्यर्थः ।। १२ ।। युद्धके लिए तत्पर राजाओं के दूषित मनकी प्रथवा क्रोधसे निकले श्वासको मूर्तिके समान धूलिपुंज शीघ्र ही दोनों सेनाओंके बीच में उमड़ आया था । मानो वह इन्हें लड़ने से रोक रहा है, क्योंकि पापी ( धुलिमय ) भी बहुधा मार-काटको पसन्द नहीं करता है ॥६॥ क्या यह वही दिन है जिसका जान-बूझकर भी अतिक्रमण नहीं किया जा सकता है ? अथवा सृष्टि प्राज तक ही रहती हैं यह सोचकर प्रतिनारायण लक्ष्मण अथवा कृष्णके अनुयायी राजानोंका समूह कवच पहनकर तैयार होने लगा था ॥ १० ॥ निरर्थक न जानेवाले क्रोध तथा पराक्रमसे विभूषित और अपने बल के कारण भीषण युद्धकर्ता रावके पुत्र ( रावरिण ) इन्द्रजीतको देखकर दोनों सेनाओंकी देह प्रीति तथा भयके कारण रोमांचित हो उठी थी । [ शत्रुपर ( मरौ ) पूर्णरूपसे तथा पूरी शक्तिके साथ बरसनेवाले क्रोध और पराक्रमके स्वामी उस राजा दुर्योधनको देख फौरव सेना प्रीति से तथा पाण्डव सेना आशंका के कारण पुलकित हो उठी थी ] ॥ ११ ॥ तब युद्ध के समस्त देवताओं को नमस्कार करके शत्रुरूपी नूतन बलि चढ़ानेके लिए तैयार और नियन्त्रण करनेके लिए कठोर रावण के भाई कुम्भकर्णको देखकर लोग काँप

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