Book Title: Dvisandhan Mahakavya
Author(s): Dhananjay Mahakavi, Khushalchand Gorawala
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 294
________________ २७६ पञ्चदशः सर्गः कान्तोन्नतस्तननितम्बनिपीडनेन प्राप्तं प्रवक्तमिव भोगमगादगाधम् । मध्येजलं तटजलं जलवृत्तयोऽल्पे धावन्ति हि श्रियमुदीरयितुं महद्भयः ॥४६।। ____ वान्तेति-- अगात् गतम्, विम् ? तटजलम्, कथम् ? मध्ये जलं कि वर्तुम् इव ? प्रवक्तुमिव निवेदयितुमिव, कम् ? भोगम्, कथंभूतम् ? प्राप्तमनुशीलितम्, केन ? कान्तोन्नतस्तन नितम्बनिपीडनेन, पुनः कथंभूतम् ? अगाधं प्रचुरम्, युक्तमेतत्, हि स्फुट जलवृत्तयः जलस्येव वृत्तियेषां ते तघोक्ताः थियम् रदीरयितु धावन्ति, केभ्यः ? महद्भ्यः सत्पुरुपेभ्यः कथंभूताः ? अले तुच्छाः, अथ च जलवृत्तयः जडानामिव वृत्तिर्येषां ते तथोक्ताः अथवा जहा वृत्तिर्येषां ते तथोक्ताः'? ॥४६॥ मध्यस्थवृत्तमपि बञ्चति नन्वगाधं लोको दुरन्तमपि गच्छति गाहनीयम् । यद्गुल्फजानुजघनस्तनदानमेव स्त्रंणं समागममयान्न पयो गभीरम् ।।४७|| मध्यस्थेति-जनु अहो वञ्चति जहाति, कोऽसौ ? लोकः, किम् ? मध्यस्यवृत्तं मध्ये तिष्ठतीति मध्यस्थं मध्यस्थं च तद्वृत्तं च मध्यस्थवृत्तम् अथवा मध्यस्थानां वृत्तं मध्ास्थवृत्तम्, कथंभूत मपि ? अगावमपि, तथा गच्छति, किम् ? गाहनीयं वृत्तम्, कथंभूतमपि ? दुरन्तमपि दुधमन्तं तटं यस्य तत्, अथवा दुष्टस्वरूपमपि, यवस्मात् कारणात् नायात् न याति हम, कि का ? पयः, कम् ? समागमम्, कथंभूतं पयः ? गभीरमतलस्पशि, तहि कथंभूतमे वायात् ? गुल्फजानुजघनस्तनदघ्नमेव गुल्फजानु जघन स्तना: परिमाणं यस्य तत्तयोक्तम्, कथंभूतं समागमम् ? स्त्रैणं स्त्रीणामयं स्त्रणः सम् ।।४।। स्रस्ताः सजा शिथिलितानि विलेपनानि संदर्शितानि च विपक्षनखक्षतानि । इत्यात्मदोषचकिता इव वेपमाना वेलारधूभिरभवत् क्षणदृष्टनष्टाः ॥४८|| छोड़े रहनेपर भी गिर जाता है। घपल कामिनियोंके माकण्ठ श्लेषके लिए प्रातुर लोगोंसे कभी संयम पाला गया है ? उनके अनशन और वखत्याग ( दिगम्बरत्व )से भी क्या होना है ? इनका तो विनाश ही अटल भविष्य है ] ॥४५॥ __ सुन्दरियोंके उन्नत स्तन और नितम्बोले टकराते-टकराते किनारेके पानीमें भवरें ( भोग ) उठने लगी थीं। इसे बतानेके लिए ही वह बीचके जलमें गहरे चला गया था। पानीमें पड़े थोड़े लोग ( देव ) क्या बहुतों ( दैत्यों )से लक्ष्मीको उबारनेके लिए दौड़ते हो हैं [जड़ या चंचल स्वभावके छोटे लोग ही किनारे या बीचमें कामिनियों के साथ की गयी जलक्रीड़ाके असीम आनन्दको बड़ोंसे कहने के लिए या अपनी सम्पत्तिका प्रदर्शन करनेके लिए दौड़ते हैं] ॥४६॥ ___ जलनोड़ामें लगे लोग बीच में भरे वृत्ताकार गहरे पानीको छोड़ देते हैं और ऊबड़पावड़ होनेपर भी किनारेके पैठने योग्य कम पानीमें घुसते हैं इसीलिए पंजा, एड़ी, पिडुली, जांध, स्तन तक गहरे पानीको ही कामिनियोंका संपर्क प्राप्त हुप्रा था। गहरा पानी अछूता रहा था [लोक भी मध्यस्थ स्वभावके गंभीर व्यक्तियोंसे भागते हैं और अन्तमें धोखा देनेवाले चपल व्यक्तियोंका साथ करते हैं। स्त्रियोंके दास ही पर, एड़ी शादि दवाते हैं। धीर गंभीर ऐसा नहीं करते हैं ] ॥४७॥ viwww 1. वसन्ततिलकावृत्तम् । २. दृष्टान्तालंकार-प००।

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