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द्वादशार- नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
पं० सुखलाल संघवी ने जैन दार्शनिक साहित्य के विकास को तीन
युगों में विभाजित किया है । वे इस प्रकार हैं
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(१) आगम-युग,
(२) संस्कृतप्रवेश या अनेकान्तस्थापन - युग, और
(३) न्याय- प्रमाणस्थापन- - युग
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इसी विभाजन को कुछ परिमार्जित करते हुए पं० दलसुख मालवणिया ने जैन दार्शनिक साहित्य के विकास को चार युगों में विभक्त किया है । पूर्वोक्त तीन युग एवं चतुर्थ नव्य न्याय युग । इस प्रकार उन्होंने दार्शनिक परम्परा के साहित्य को चार युगों में विभाजित किया है । २
पं० दलसुखभाई मालवणिया ने काल - विभाजन इस प्रकार किया है :(१) आगम-युग :- भगवान् महावीर के निर्वाण से लेकर करीब एक हजार वर्ष का अर्थात् वि० पाँचवीं शती तक का समय
(२) अनेकान्तव्यवस्था-युग :- वि० पाँचवीं शती से आठवीं तक का
समय ।
(३) प्रमाणव्यवस्था - युग :- वि० आठवीं से सत्रहवीं शती तक का समय, और
(४) नव्यन्याय - युग :- विक्रम सत्रहवीं शती से आधुनिक समय
पर्यन्त । ३
आगमयुग
भगवान् महावीर के उपदेशों का संग्रह करके गणधर भगवंतो ने प्राकृतभाषा में अंगों की रचना की । वे ग्रन्थ अंग आगम कहलाए । गणधरों
१. प्रमाणमीमांसा, प्रस्तावना - पृ० १२.
२. जैन दार्शनिक साहित्य के विकास की रूपरेखा, पृ० १.
३. वही, पृ० १.
४.
वही, पृ० २.
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