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प्रथम अध्याय
जैन दार्शनिक परम्परा का विकास (आचार्य मल्लवादी पर्यन्त)
। भारत में प्राचीन काल से ही दार्शनिक चिन्तन की धारा प्रवाहित होती रही है । वैदिक साहित्य में प्राप्त दार्शनिक विचारों के आधार पर ही भारतीय दार्शनिक परम्परा का इतिहास अति प्राचीन सिद्ध होता है । भारतीय दर्शन परम्परा में मुख्य तीन विचारधाराओं का उद्भव एवं विकास हुआ-(१) वैदिक परम्परा (२) बौद्ध परम्परा एवं (३) जैन परम्परा । इन तीनों परम्पराओं के दार्शनिक साहित्य में एक-दूसरे के विचारों का प्रभाव स्पष्ट रूप से प्रतीत होता है । भारतीय दार्शनिक परम्परा में जहाँ अपने मत का स्थापन करने की शैली रही है, वहीं अन्य दर्शन के सिद्धान्तों को पूर्वपक्ष में रखकर उनकी त्रुटियों या कमियों को दिखाकर उन-उन मतों का खण्डन करने की शैली भी रही है । इस शैली के कारण एक ओर अपने सिद्धान्त को स्थापित करने के लिए नई युक्ति-प्रयुक्तियों का उद्भव होता रहा, वहीं अकाट्य तर्कों द्वारा अन्य दर्शनकारों के मतों का खण्डन करने की भी प्रवृत्ति रही । इसी कारण पूर्वोक्त तीनों परम्पराओं के दार्शनिक साहित्य का खण्डन-मण्डन की इन प्रवृत्तियों के द्वारा विकास होता रहा है । जैन दार्शनिक साहित्य में द्वादशार-नयचक्र का स्थान क्या है इसे समझने के लिए जैन दार्शनिक चिन्तन की परम्परा का अवलोकन आवश्यक है ।
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