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प्रस्तावना - XI धनेश्वरसूरि, महेश्वराचार्य, चक्रेश्वराचार्य, मलयगिरि, यशोदेवसूरि, यशोभद्रसूरि, उदयसिंहसूरि, अजितदेवसूरि, जिनपतिसूरि, जिनपालोपाध्याय, युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि, संवेगदेवगणि आदि साक्षर विद्वानों ने अपनी-अपनी टीकाओं में नवांगी टीकाकारक अभयदेवसूरि के शिष्य 'जिन' अर्थात् जिनेश्वरों के 'वल्लभ' अर्थात् अत्यन्त प्रिय जिनवल्लभसूरि को सिद्धांतविद् एवं आप्त मानते हुए टीकाओं के माध्यम से अपनी भावांजली प्रस्तुत की है।
जिनवल्लभसूरि का भाषा ज्ञान और शब्द कोश अक्षय था। वे प्राकृत और संस्कृत भाषा के उच्चकोटि के विद्वान् थे और इन भाषाओं पर उनका पूर्ण प्रभुत्व था।
____ आचार्य जिनवल्लभ का संक्षिप्त जीवन परिचय, जिनवल्लभसूरि द्वारा स्वप्रणीत अष्टसप्तति, जिनपालोपाध्याय प्रणीत खरतरगच्छालंकार युगप्रधानाचार्य गर्वावली और मेरे (महोपाध्याय विनयसागर) द्वारा लिखित वल्लभभारती प्रथम खण्ड और द्वितीय खण्ड की भूमिका के आधार से लिखा गया है। धर्मशिक्षाप्रकरण - आत्मा परकीय/वैभाविक दुर्गुणों से पतन की अग्रसर होती है
और स्वाभाविक गुणों को प्राप्त कर श्रेयस् मार्ग की ओर अग्रसर होती है। वह श्रेयस् मार्ग ही धर्म कहा गया है। देव, गुरु और धर्म तत्त्व को समझ कर, सद्गुरुओं के उपदेश का अवलम्बन लेकर जीवन के आचार और व्यवहार में अनुशासित/शिक्षित होकर श्रेयों मार्ग की ओर बढ़ना ही धर्म शिक्षा है।
यह उपदेशिक लघु काव्य है। गम्भीर विषय होने पर भी भह्वप्रतिपादक संक्षिप्त किन्तु सरल प्रौढ़ होने पर भी प्राञ्जल भाषा में यह श्रेष्ठ रचना है। इसमें मात्र ४० श्लोक है। सिद्धहस्त कवि ने अनुप्रास, उपमा और रूपक आदि अलंकारों का आश्रय लेकर गौडी, वैदर्भी, माधुरी आदि वृत्तियों का इसमें सफलता के साथ संयोजन किया है। लघु कृति होते हुए भी कवि ने इस काव्य की अधिकांश रचना शार्दूलविक्रीडित और स्रग्धरा छन्द में की है। बीच-बीच में मालिनि, शिखरिणी
और पृथ्वी छन्द भी इसमें मौक्तिकों की तरह जड़े हुए है। साराशं - प्रथम पद्य में कवि वीतरागी जिनेन्द्र देव को नमस्कार कर प्रस्तुत प्रकरण करने की प्रतिज्ञा करता है। रससिद्ध कवि चित्रकाव्य प्रेमी होने के कारण प्रथम पद्य में ही षडरक चक्रबद्ध काव्य में "जिनवल्लभगणिवचनमिदम" कवि अपना नाम प्रयुक्त करता है।
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