Book Title: Dharmshiksha Prakaranam
Author(s): Vinaysagar
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 133
________________ १०४ परिशिष्ट -२ लाटीया पञ्च सप्त वा [रुद्रट काव्यालङ्कार २/४] लोगसहावो बोही विणओ सासणे मूलं [उपदेशमाला ] विद विचारणे [पा. धातुपाठ १५४३] विनयः शासने मूलम् विन्देत् कार्पटिकः विस्मारकः कलियुगे वृत्तेरसमासाया [रुद्रट काव्यालङ्कार २/३] वृद्धश्रेष्ठ्यङ्गजातैः शब्दाः समासवन्तो [रुद्रट काव्यालङ्कार २/५] शाठ्येन धर्माचरणं दम्भः [ सच्चं मोसं मीसं संजलण नोकसाया संसद्यष्टशतो सकलभरतवर्षा. सऽन्नगिहिलिंग. समयंमि सत्त. समांसमीनाद्यश्वीनाद्य. [सिद्धहेम.७/१/१०५] समिई गुत्ती सम्भावनामथोत्प्रेक्षा [काव्यप्रकाशसूत्र १३८] सव्वं गीयं विलवियं [उत्तराध्ययन सूत्र १३/१६] साक्षात्तत्त्वविलोकि. सामाइयं छेओ. सुनिबिडजलनीली. सुहदुहरूवो सेष्टा संसृष्टिरेतेषां [काव्यप्रकाशसूत्र २०७] सो हु तवो कायव्वो स्वयम्भूरमणे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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