Book Title: Dharmshiksha Prakaranam
Author(s): Vinaysagar
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 132
________________ १०३ आदि पद परिशिष्ट-२ पृष्ठाङ्क स्त्रोत السا مسا لسسا ا ا ا न लोकाव्ययनिष्ठा. (टि.) [सिद्धान्तकौमुदी २/३/६९] नाणं पयासयं सोहओ. [आवश्यकनि. १०३] नाम्युपधप्रीकृगृज्ञां कः (टि.) [कातन्त्रव्याकरण ४/२/५१] निजवर्गान्त्यैवाः [रुद्रट काव्यालङ्कार २/२०] पच्चुपन्नं वाहिं पढमं नाणं तओ दया [दशवै. ४/१० पढममणिच्च. परिणतिविरसं पात्रमुत्तमगुणै. पावट्ठाणेहिंतो पाषाणस्तम्भचूर्णा. पूर्वार्जितं क्षप. [तत्त्वार्थ. भा. प्रशस्ति. २] प्रासादे सा पथि पथि प्रियस्थिरस्फिरोरु. [सि.हे.७-४-३८] प्रियस्थिरस्फिरोरु. (टि.) [पा. सिद्धान्तकौमुदी ६/४/१५७] प्रौढायां कस्तयुक्तश्च [रुद्रट काव्यालङ्कार २/२४] बंधस्स मिच्छ अवि. [प्राचीन चतुर्थकर्मग्रन्थ ७४] बन्धविप्रयोगो मोक्षः बारसविहा अविरई [प्राचीन चतुर्थकर्मग्रन्थ ७६] भिन्नं कर्तुं किल स्त्री [ मणगुत्तिमाईयाओ ।। मन्थे तथौदने. मन्थौदनसक्तुबिन्दु. (टि.) [सिद्धहेम. ३/२/१०६] महाकुलाद् वाऽजीनजौ [सिद्धहेम. ६/१/७७] मायापरस्स मणु. रागाद्वा द्वेषाद्वा लच्छीकरकमल. लश्चापरैरसंयुक्तः [रुद्रट काव्यालङ्कार २/२९] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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