Book Title: Dharmshiksha Prakaranam
Author(s): Vinaysagar
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 131
________________ १०२ परिशिष्ट -२ आदि पद स्त्रोत पृष्ठाङ्क [ [दशवै. ४/१६] [नवतत्त्व. १] [तत्त्वार्थसूत्र १/४] [दशवै. ४/१२] [दशवै. ४/१३] जम्हा निकाइयाण जया पुण्णं च पावं च जीवकर्मप्रदेशानां जीवाजीवा पुन्नं जीवाजीवास्रवसंवर. जुत्तीए अविरुद्धो जो जीवे वि ण याणइ जो जीवे वि वियाणाई तंबोलपाण. ततोऽन्तराय. तद्युक्तश्च लकारः तपसा निर्जरा च तद्रूपकमभेदो तसदस चउवन्नाई तसबायरपज्जत्तं तह पिज्जवत्तिया तुममच्छीहिं न दीससि ते लाचने प्रतिदिशं थावरदस चउ. थावरसुहुमअपज्जं दन्तौष्ठमित्यनुरागः [तत्त्वार्थ. भा. प्रशस्ति. श्लो ३] [रुद्रट काव्यालङ्कार २/२०] [तत्त्वार्थसूत्र ९/३] [काव्यप्रकाशसूत्र १४०] [ [न्यायतात्पर्यपरिशुद्धि पृ. २४७] [१/१/१४] दृश्यं वस्तु परं न द्वित्रिपदा पाञ्चाली धम्माधम्मागासा नग्नप्रेत इवा. नरतिरिसुराउ. नरयाउ नीय. [रुद्रट काव्यालङ्कार २/४] [नवतत्त्च.५] [गंधहस्ति टीका] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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