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प्रस्तावना - XVIII टीका की भाषा सरल, सुबोध होते हुए भी प्रौढ़ और प्राञ्जल है। प्रत्येक वस्तु को इस प्रकार स्पष्ट किया गया है कि पाठक ग्रंथकार के मानस को और विषय के स्वरूप को सहज भाव से समझ सकें, यह ध्यान टीकाकार ने विशेष रूप से रखा है। यत्र-तत्र प्राचीन सैद्धान्तिक शास्त्रों और व्याकरण तथा अलंकार शास्त्रों के उद्धरण भी अंकित किये हैं। यह विवरण वस्तुतः पठनीय है। इस ग्रंथ पर इसके अतिरिक्त कोई विवरण प्राप्त नहीं है। प्रति परिचय - धर्मशिक्षावृत्ति की एक मात्र दुर्लभ प्रति श्री जिनभद्रसूरि ज्ञान भण्डार, जैसलमेर की है। सन् १९५२ में आगम प्रभाकर पूज्य मुनिराज श्री पुण्यविजयजी महाराज (स्वर्गीय) से प्राप्त की थी। वर्षों तक मेरे पास रही। सन् १९८६ में जैसलमेर के इस भण्डार के अध्यक्ष को वापिस प्रदान कर दी थी।
इस ग्रन्थ की पत्र सं० ४५ से ६४ अर्थात् १९ पत्रात्मक है। इसकी साईज २५.८x११ से०मी है। प्रति पृष्ठ पंक्ति संख्या २१ है और प्रति पंक्ति अक्षर संख्या ६२-६४ है। प्रति में लेखन सम्वत् नहीं दिया गया है किन्तु कागज और स्याही
और लिपि को देखते हुए विक्रम के १५ शताब्दी के अंतिम चरण और १६वीं शताब्दी के मध्य की है। पत्र के मध्य में गोलाकार शब्द दिया गया है और पत्र के दोनों ओर पत्रांक के स्थान पर लाल स्याही से गोल बिन्दु दिया गया है। पत्र के किनारे पर श्रीधर्मशिक्षावृत्तिः लिखा गया है। प्रति का एक अर्थ का किनारा कटा हुआ है। यह प्रति अत्यन्त शुद्ध है। कही कही किनारे पर टिप्पणियाँ भी लिखी हुई है। पत्र संख्या ६४ बी पर भिन्नाक्षर-लिपि में प्रतिगृहीता की पुष्पिका दी गई है। इस पुष्पिका में लिखा गया है - विक्रम सम्वत् १६०० माघ सुदि ७ के दिन जैसलमेर महादुर्ग श्री बृहद् खरतरगच्छीय श्री जिनमाणिक्यसूरि के विजय राज्य में श्री सागरचन्द्रसूरि के संतानीय वाचनाचार्य महिमराजगणि के शिष्य > वाचक दयासागरगणि के शिष्य > वाचनाचार्य ज्ञानमंदिरगणि के शिष्य > श्री देवतिलकोपाध्याय ने पंडित विजयराज, पं० नयसमुद्रगणि और क्षुल्लकपद्ममंदिर आदि शिष्य परिवार के साथ इस धर्मशिक्षाप्रकरणवृत्ति की प्रति पठनार्थ ग्रहण की।
पूर्ण पुष्पिका इस प्रकार है:
॥ र्द० ॥ सम्वत् १६०० वर्षे माघ सुदि ७ वासरे श्रीजैसलमेरु- महादुर्गे श्रीजिनमाणिक्यसूरिविजयिराज्ये श्रीमच्छ्रीसागरचन्द्रसूरिसूरिस्वरान्वये वाचनाचार्यवर्य
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