Book Title: Dharmshiksha Prakaranam
Author(s): Vinaysagar
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 28
________________ प्रस्तावना -XIX महिमराजगणि तत्शिष्यरत्न वा० दयासागरगणि शिष्यप्रवर वा० ज्ञानमन्दिरगणीनां शिष्यशिरोमणि श्रीदेवतिलकोपाध्यायैः पं० विजयराजमुनि पं० नयसमुद्रगणि पं० पद्ममंदिर-क्षुल्लकादि शिष्यसुपरिवारसहितैः श्री धर्मशिक्षाप्रकरणवृत्तिर्गृहीता वाच्यमाना चिरं नंदतु॥ श्रीरस्तुः॥ इसकी दूसरी प्रति आज तक प्राप्त नहीं हुई है। किसी शोध विद्वान् को प्राप्त हो तो सूचित करने का कष्ट करें। प्रकाशन का इतिहास - सन् १९५२ में जब मैं आचार्य जिनवल्लभसूरि के साहित्य पर शोध प्रबन्ध लिख रहा था, उसी समय आगम प्रभाकर मुनिराज (स्वर्गीय) श्री पुण्यविजयजी महाराज के सहयोगी श्री नगीन भाई से इसकी पाण्डुलिपि भी तैयार करवाई थी, सम्पादन भी किया था। इसको शीघ्र ही प्रकाशित करने की मेरे अभिलाषा थी, किन्तु वह प्रेसकॉपी भी पानी से भीग जाने के कारण समय पर पूर्ण न हो सकी। वि०सं० २००३ में श्रद्धेय प्रवर आग्मज्ञ पूज्य मुनिराज श्री जम्बूविजयजी महाराज ने वल्लभ-भारती प्रथम खण्ड का अवलोकन करने के पश्चात् वल्लभभारती का द्वितीय खण्ड और प्रस्तुत धर्मशिक्षावृत्ति के प्रकाशन की ओर संकेत किया है। संकेत ही नहीं पूज्यश्री ने आदेशात्मक निर्णय भी दिया - "इस ग्रंथ का प्रकाशन शीघ्र करो, प्रकाशन में अर्थ सहयोग के रूप में उनका निर्देश था कि श्री सिद्धि-मनोहर- भुवन ट्रस्ट भी इसमें सहयोग देगा और प्राकृत भारती से भी सहयोग के लिए प्रयत्न करो'' इस आदेश के फलस्वरूप मैंने प्रयत्न किया और मुझे प्रसन्नता है कि प्राकृत भारती अकादमी एवं एम०एस०पी०एस० जी० चेरिटेबल ट्रस्ट ने भी संयुक्त प्रकाशन के लिए स्वीकृति प्रदान की। यह धर्मशिक्षाप्रकरण वृत्ति सहित चारों संस्थाओं के संयुक्त प्रकाशन के रूप में प्रकाशित हो रहा है। सन् १९५२ का कार्य ५३ वर्ष बाद मेरे हाथों ही प्रकाशित हो, तो मेरे लिए हर्ष विषय है। आभार पूज्य प्रवर आगमवेत्ता श्री जम्बूविजयजी महाराज का उपकार मैं किन शब्दों में व्यक्त करूँ, उन्हीं की सतत प्रेरणा और सहयोग से यह यह ग्रन्थ प्रकाशित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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