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- धर्मरत्नाकरः -
[१. ९9) करचरणादौ तुल्ये दृश्यन्ते दुःखदूनमनसो ऽन्ये । ____ताधर्मः स्फूर्जति सातिशयं निश्चयाज्जगति ॥ ९ 10) समे ऽपि यत्ने पुरुषाः प्रकृष्टे लभन्त एके हि फलं विशालम् ।
पर तु कष्टं परितो ऽपि पुष्टं समर्थ्यते सद्भिरिहाप्यदृष्टम् ॥ १० 11) पाथोदाः परिपूरयन्ति परितः पाथोभिरेतां धरां
काले यत्पवनो वहत्यपि तथा शीतं च तापं क्वचित् । तत्रापि प्रतपत्यवारितरसः संसारिधर्मो ध्रुवं
नैवं चेदंगमिष्यदेकतमतामोभूर्भुवःस्वस्त्रयी ॥ ११ 12 ) पतति नरकं प्रायो लोकोऽनिपित्सुरपि ध्रवं
वृजिनभरतों जानानः संस्तदोयगति यथा। नृपतिवनिताधीनं धन्यं पर भुवनाचित । सुरपतिपुरं पुण्यावासाः प्रयान्न्यपरे तथा ॥ १२
इस जगत् में हाथ, पाँव आदि के समान होने पर भी कुछ लोग मन में दुःख से व्यथित दीखते हैं । यह निश्चय से अधर्म का ही प्रभाव है ॥९।।
समान रूप से महान यत्न करने पर भी कितने ही सज्जनों को प्रचुर सुखरूप फल मिलता है, किन्तु दूसरों को सब ओरसे कष्टही कष्ट प्राप्त होता है । अत: इस शुभाशुभ फल की प्राप्ति में अदृष्ट (दैव ) कारण है ऐसा सज्जन समर्थन करते हैं ॥१०॥
योग्य वर्षा कालमें-वर्षा के समय में-मेघ पानीसे इस पृथ्वीको चारों ओर से परिपूर्ण करते हैं, योग्य कालमें वायु क्वचित् शीतपना और क्वचित् उष्णता को धारण करती हुयी बहती है । इस प्रकार मेघादिक जो यह कार्य करते हैं उस में भी निश्चय से अनिवार्य पराक्रम से संयुक्त उस संसारी प्राणियों के धर्म (पुण्य-पाप) का ही प्रताप समझना चाहिये । कारण कि यदि ऐसा न होता तो तीनों लोक समानता को प्राप्त हो जाते, सो ऐसा नहीं ॥११॥
जिस प्रकार नरक में पड़ने का इच्छुक न हो कर भी प्राणी पापभार के कारण उसकी गति को-नारकवेदना को-जानता हुआ भी नरक में पडता है, उसी प्रकार अन्य पुण्यशाली जन
९) 1 समाने सति. 2 पीडित. 3 पापिन:. 4 तेषु अन्येषु . 5 यथा भवति । १०) 1 लभन्ते. 2 अन्ये 3 लभन्ते. 4 बहुतरम्. 5 कथ्यते. 6 धर्माधर्मलक्षणं दिष्टं केवलेन कथितम. ११) 1 D पाथोस्ति, P जलः. 2 उदयः. 3 संसारिधर्म:. 4 यदि धर्मस्य गुणा न भवन्ति तदा एकरूपस्त्रिलोको. 5 ओं एवं [भूः] अधो भुव: मध्यः स्वः ऊर्ध्वः। १२) 1 अगन्तुकामोऽपि, न पतितुकामोऽपि. 2 पापसामर्थ्यात् . 3 जानन सन. 4 पापस्य गति. 5 एके पुण्यात्मानः. 6 पुण्यवन्तः. 7 अप्रेरिता अपि पुण्यवन्तः ।