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- धर्मरत्नाकरः -
[४. ७८260) एवंविधानि पात्राणि पवित्रितजगन्त्यहो ।
कियन्ति सन्ति लोके ऽत्र' कियन्तः कल्पपादपाः ॥ ७८ 261) प्रायो ऽस्ति नैकगुणमात्रममत्रमत्र - द्वित्रगुणैरनुगतं सुतरां दुरापम् ।
मत्वेति पात्रमुपलभ्य विचक्षणानां
नोपेक्षणं क्षणमपि क्षमते क्षमाणाम् ॥ ७९ 262) यतिपतिभिरसंगैः संगतिः पुण्यलभ्या
परिणतिरपि दाने दुर्लभा मन्दभाग्यः । उचितमुचितमुच्चैर्वस्तुं देयं दुरापं
त्रितयंमिदमुदारैः को ऽप्यवाप्नोति पुण्यैः ॥ ८० 263) प्राप्ते ऽपि पात्रे सुलभं न वित्तं
वित्ते ऽपि पुण्यैः पुनरेति चित्तम् । दाने त्रयं को ऽपि भवाब्धिसेतुं
प्राप्नोति कल्याणकलापहेतुम् ॥ ८१
लोक को पवित्र करने वाले वे पात्र भला संसार में कितने हैं ? अर्थात् ऐसे उत्तम पात्र लोक में क्वचित् ही उपलब्ध होते हैं। सो ठीक भी है, क्यों कि, यहाँ लोक में कल्पवृक्ष कितने हैं ? || ७८ ॥ . लोक में प्रायः सम्यग्दर्शनादि गुणों में से केवल एक किसी गुण से युक्त भी पात्र नहीं उपलब्ध होता है, फिर भला दो- तीन गुणों से युक्त वह पात्र तो स्वयं अतिशय दुर्लभ होगा, ऐसा समझ कर जो चतुर एवं समर्थ दाता हैं वे उनको उपेक्षा एक क्षण के लिये भी सहन नहीं करते हैं ॥ ७९ ॥ ... निग्रंथ - परिग्रह रहित – मुनियों की संगति पुण्य से प्राप्त होती है, मन्द भाग्यवाले के मन में दान देने का विचार आना भी दुर्लभ है, इसके साथ देने के योग्य उत्तम वस्तु (बाहारादि) भी अतिशय दुर्लभ होती है । पात्र, दान देनेका विचार और उत्तम देय (आहारादि) वस्तु, इन तीनों को प्राप्ति पूर्व पुण्योदय से महान् पुरुषोंको ही होती है ॥ ८० ॥
पात्र के प्राप्त होने पर भी किसी किसी को धन के अभाव में उसके लिये देने योग्य
७८) 1 अस्मिन् संसारे. 2 दातारः । ७९) 1 [पात्रं = ] ऋषि. 2 संसारे. 3 युक्तम्.4 दुष्प्रापं. 5प्राय। ८०) | बाह्याभ्यन्तरसंगरहितः. 2 पुरुषैः. 3 योग्यं योग्यं.4 अन्नादिकं भक्ष्यवस्तु. 5 यते: संगतिदर्शन परिणतिः अन्नादिभक्ष्यवस्तु. 6 इदं त्रिकम् . 7 पुण्यैः कृत्वा प्राप्ते सति । ८१) 1 संसारसमुद्रे कि पानं वित्तं चित्तं इति त्रयं फलम्. 2 गर्भादि. 3 कारणम् ।