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- दानफलम् - 309) दानं निदानं यदि पातकानां संपाद्यते नैव तदा मुनीन्द्राः।।
दद्युस्त्वनिन्द्या निरवद्य विद्याचतुष्टयाध्यासितसच्चरित्राः ॥ १९ 310) अयुक्ते न प्रवर्तन्ते मर्त्यनाथास्तथाविधाः।
रागद्वेषप्रमादादिविमुक्ता मुक्तिसंमुखाः ॥ २० 311) न हयुत्तरारम्भभवो ऽपि दोषो दातुर्भवेन्निश्चितमत्र कश्चित् ।
परोपकाराय दयापरस्य प्रवर्तमानस्य शुभाशयस्य ॥ २१ 312) अन्यथा हि महादानं महारम्भनिबन्धनम्।
न दधुर्विधिना धन्या विवीर्या निधनं धनम् ॥ २२ 313) एष्टव्यमत एवेदं गुर्वादेरपि नान्यथा ।
अन्नादि देयं व्याध्यादेः कदाचित्स्याद्विधायकम् ॥ २३
तीर्थंकरों ने-जन्मजात मति, श्रुत और अवधि इन तीन ज्ञानों के साथ दीक्षित हो कर चतुर्थ मनःपर्यय ज्ञान को भी प्राप्त करते हुए संघ के लिये मौनपूर्वक भी मार्ग को दिखलाया है। पश्चात् विहार कर के उन्हों ने प्राणिसमूह को प्रसन्न करते हुए उस मार्ग की प्ररूपणा भी की. है। इसलिये जो सत्पुरुष आत्मकल्याण में उद्यत हैं उन्हें क्या धर्मात्मा जन के लिये आहारादि को नहीं देना चाहिये ? अवश्य देना चाहिये ॥१८॥
___ यदि दान पापों का कारण होता तो निर्दोष चार ज्ञानों के साथ उत्तम चारित्र को धारण करनेवाले प्रशंसनीय मुनीश्वर-तीर्थंकर-उस दान को कभी भी नहीं देते। कारण कि, राग, द्वेष व प्रमादादि दोषों से रहित हो कर मुक्ति के संमुख हुए वैसे महापुरुष-तीर्थंकर-अयोग्य कार्य में प्रवृत्त नहीं हो सकते हैं ॥ १९-२०॥
जो दयालु दाता निर्मल अभिप्राय से परोपकार करने में प्रवृत्त हो रहा है उसे निश्चय से कोई उत्तर आरम्भसे उत्पन्न हुआ दोष भी नहीं लग सकता है ॥ २१ ॥
यदि वह दान आरम्भजनित दोष से संगत होता तो फिर महादान (विपुलदान) तो अत्यधिक आरम्भ का कारण हो सकता था। तब वैसी अवस्था में विशिष्ट वीर्य-शाली, पुण्यपुरुष विधिपूर्वक नश्वर धनका दान कैसे कर सकते थे? (परन्तु चूंकि उन विचारशील महापुरुषोंने प्रचुर दान दिया है अतएव इससे सिद्ध है कि वह दान आरम्भजनित दोष से दूषित नहीं है) ॥ २२ ॥
यदि दान आरम्भजनित पाप का कारण होता तो फिर कोई गुरु-मुनि-आदि सत्पा
१९)1 कारणम्. 2 P °संपद्यते. 3 कविगमकवादिवाग्मिरूपाः । २०) 1 राजानः । २२ ) 1 कारणम्. 2 PD पराक्रमयुक्ताः . 3 D °वीर्याऽनिधनं ।
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