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[१२. द्वादशो ऽवसरः]
[अहिंसासत्यव्रतविचारः] 924) सा स्तूयते द्वितीया तु यस्या भेदाः सहस्रधा ।
पञ्चाणुव्रतसंभारभारिणो यामुपाश्रिताः ॥ १ 925 ) धर्मसहिंसारूपं संशृण्वन्तो ऽपि ये परित्यक्तुम् ।
स्थावरहिंसामसहास्त्रसहिंसां ते ऽपि मुञ्चन्तु ॥ १*१ 926) द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियजीवानां निरपराधवृत्तीनाम् ।
___ स्थूलाहिंसा प्राणव्यपरोपणतः प्रमादतो विरतिः ।। २ 927) विकथाक्षकषायाणां निद्रायाः प्रणयस्य च ।
अभ्यासाभिरतो जन्तुः प्रमत्त इति कीर्तितः ॥३
अब यहाँ उस दूसरी व्रत प्रतिमा की स्तुति- प्ररूपणा- की जाती है, जिसके भेद हजारों हैं। तथा जिसका आश्रय पाँच अणुव्रतों के भार को धारण करने वाले श्रावक लिये करते हैं ॥ १ ॥
____ अहिंसामय धर्म के स्वरूप को सुनते हुए भी जो भव्य जीव स्थावर हिंसा के-पृथिवीकायिक आदि पाँच प्रकार के स्थावर जीवों के घातके-छोडने में असमर्थ हैं, उन्हें भी त्रसहिंसा काद्वीन्द्रियादि त्रस जीवों के घात का - तो परित्याग करना ही चाहिये ॥११॥
पर के अपराध रूप व्यापार से रहित द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों का जो प्रमाद के वशीभूत होकर घात किया जाता है उससे विरत-विमुख-होना, इसका नाम स्थूल अहिंसा- अहिंसाणुव्रत है ॥२॥
जो स्त्रीकथा, भोजनकथा, राजकथा और राष्ट्रकथा इन चार विकथाओं, पाँच
- १) प्रतिमा. 2 प्रतिमाम् । १*१) 1 असमर्थाः । २) 1D विनाशतः ।