Book Title: Dharmaratnakar
Author(s): Jaysen, A N Upadhye
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh

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Page 468
________________ ४०२ - धर्मरत्नाकर: - [१९. ४९1586) आज्ञापायविपाकसंस्थितिसमाविद्धं हि धये दधद्' ध्यानं प्राप्य परीषहानिव रिपून सर्वोपसर्गः समम् । इत्थं यः परलोकसाधनकृते कुर्यात्प्रयाणं कृती तस्यैकस्य जिगीषतो ऽस्तु किमिवासाध्यं त्रिलोक्यामपि ॥ ४९ 1587) सर्वानर्थप्रशमन विधिः सर्वधर्मप्रधारा सर्वान् कामान्' वितरितुम सर्वगा कामधेनुः । साक्षान्मोक्षं किमथ बहुना सा चतुर्वर्गसारा भक्त्याराध्या जयमुनिनुता प्रान्त्यसल्लेखनैषा ॥ ५० ॥ इति धर्मरत्नाकरे सल्लेखनावर्णनो नाम एकोनविंशतितमो ऽवसरः॥ १९ ॥ जो पुण्यशाली पुरुष आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय इन चार भेदों से समाविद्ध-वेधे गये-धर्म्य ध्यान को धारण करता हुआ उपसर्गों के साथ शत्रुओं के समान परीषहों को प्राप्त कर के उनपर विजय प्राप्त करता है व इस प्रकारसे परलोक की सिद्धि के लिये प्रस्थान करता है - सल्लेखनापूर्वक मरण को प्राप्त होता है उस अद्वितीय विजिगीषु - विजयाभिलाषी योद्धा - के लिये तीनों लोकों में असाध्य क्या हो सकता है ? कुछ भी नहीं - वह सभी प्रकार की सिद्धि को प्राप्त करता है तात्पर्य - धर्मध्यान के चार भेद हैं । उनका विवरण-- १) आज्ञाविचय-उपदेशक के अभाव, बुद्धि को मन्दता, पदार्थों की सूक्ष्मता तथा हेतु व दृष्टान्त के न मिलने से सर्वज्ञप्रणीत आगम को प्रमाण समझ कर 'वस्तुस्वरूप ऐसाही है, जिनेश्वर अन्यथावादी नहीं हैं 'ऐसा मानकर गहन पदार्थों के ऊपर श्रद्धान करना। २) अपायविचय – भिथ्यादर्शन - ज्ञान और चारित्र से ये प्राणी कैसे दूर होंगे, ऐसा बार बार विचार करना। ३) विपाकविचय - ज्ञानावरणादि कर्मों के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावरूप कार णों से प्राप्त होनेवाले फलानुभवन का बारबार विचार करना। ४) संस्थानविचय-लोक का आकार और उस के स्वभाव का बार बार विचार करना। इन चार ध्यानों में स्थिर रहकर सल्लेखना का धारक परोषह और उपसर्गों को जीतता है। तब उसे परलोक में स्वर्गादिकी प्राप्ति होती है ॥४९॥ जयसेन मुनि के द्वारा स्तुत-जिसकी स्तुति की गई है-तथा भक्ति से आराधन के योग्य यह अन्तिम सल्लेखना संपूर्ण अनर्थों को शान्त करनेवाली, सर्व क्षमादिक धर्मों की उत्कृष्ट धारा, संपूर्ण इष्ट पदार्थों के देने में अतिशय समर्थ होतो हुई सर्वत्र जानेवाली कामधेनु है । अधिक क्या कहें? धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पुरुषार्थों में सारभूत वह साक्षात् मोक्ष को देनेवाली है ॥५०॥ इस प्रकार श्रीधर्म रत्नाकर में सल्लेखना वर्णन करनेवाला यह उन्नीसवाँ अवसर समाप्त हुआ ॥ १९ ॥ ४९) 1 ध्यानम्. 2 धारयन्. 3 जेतुमिच्छो: 1५०) 1 अभिलाषान्. 2 दातुम्. 3 समर्था सल्लेखना। -rrrrrrrrrrrrrrrr

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