Book Title: Dharmaratnakar
Author(s): Jaysen, A N Upadhye
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh

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Page 480
________________ ४१४ - धर्मरत्नाकरः - [२०. २३२२1633 ) प्रातर्विधिजिनपदाम्बुजसेवनेने मध्याह्नसंनिधिरयं मुनिमाननेन । सायंतनों ऽपि समयो गृहिणः प्रयातु तत्कालयोग्यनियमाईदनुस्मृतेन ॥ २३*२ 1634) मार्गाख्यकल्पविटपस्य तथा फलानि गृह्णातु यद्वदिह वन्ध्यमनोरथो न । अर्थी जनो भवति यद्वदसौ न भूयः सर्वः प्ररोहति भवो ऽपि परैः किमुक्तैः ॥ २४ 1635) रत्नत्रयं भावयतामितीत्थमपूर्णमप्यस्ति ततो न बन्धः । यो ऽसौ विपक्ष प्रकृतो नियोगान्मोक्षाभ्युपायो न हि बन्ध हेतुः ॥ २५ 1636) अंशेन केनास्त्यमलावबोधस्तेनांशकेनास्ति नु बन्धनं न । अंशेनं केनापि चयेन रागः संपद्यते तेन तु बन्धनं स्यात् ॥२६ 1637) योगेन बन्धौ प्रकृतिप्रदेशौ कषायतः स्थित्यनुभागसंज्ञौ । रत्नत्रये नैव कषायरूपं न योगरूपं विमृशन्तु सन्तः ।। २७ गृहस्थ का प्रातःकाल जिनचरणकमल की पूजा में, मध्यान्हकालकी समीपता मुनियों का आहारादि के द्वारा आदर करने में तथा संध्याकाल का समय उस काल के योग्य नियम और अर्हत् प्रभु के स्मरणपूर्वक व्यतीत होना चाहिये ॥ २३॥२॥ हे भव्य! बहुत कहने से क्या लाभ? तू मार्ग-मोक्षमार्ग-नामक कल्पवृक्ष के फलों को इस प्रकार से ग्रहण कर कि जिससे यहाँ अर्थी – मोक्षाभिलाषी व याचक-जन विफल मनोरथ न हों तथा जिस प्रकार से यह सब संसार भी फिर से अंकुरित न हो सके ॥ २४ ॥ इस प्रकार से जो अपूर्ण रत्नत्रय का भी आराधन करते हैं उन के उससे कर्मबन्ध महीं होता है । उस के जो बन्ध होता है वह रत्नत्रय के विपक्ष राग द्वेषादि से ही होता है । जो नियम से मोक्षका ही कारण होता है वह बन्ध का कारण नहीं होता है ॥ २५॥ जितने कुछ अंश में निर्मल सम्यग्ज्ञान है उतने अंश से कर्मबन्ध नही होता है । तथा जितने अंश से रागभाव होता है उतने अंश से बन्ध अवश्य होता है ॥२६॥ योग से प्रकृतिबन्ध [ और प्रदेशबन्ध होता है तथा कषाय से स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध ] होता है । परन्तु रत्नत्रय के होनेपर न कषाय का रूप रहता है और न योग का रूप रहता है, ऐसा सत्पुरुषों को विचार करना चाहिये ॥२७॥ २३२२) 1 P पूजनेन. 2 संध्यासमय: । २४)1 न भूयो भरमति. 2 संसार:. 3Dकिमुप्ते: । २५) रत्नत्रयात् 2 रत्नत्रयविलक्षणप्रारब्धः । २६) 1 रत्नत्रयादि केनचिदंशेन.2 योगकषायरूपेण । २७) 1 विचारयन्तु ।

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