Book Title: Dharmaratnakar
Author(s): Jaysen, A N Upadhye
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh

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Page 481
________________ • २०. ३२] - उक्तानुक्तशेषविशेषसूचकः1638) सुदर्शनं स्वात्मविनिश्चयो यो विज्ञानमयात्मविशुद्ध बोधः। चारित्रमप्यात्मनि या स्थितिः स्यादेभ्यस्तत स्यात्कुत एव बन्धः ॥ २८ 1639 ) सम्यक्त्वचारित्रगुणेन बन्धस्तीर्थेश्वराहारककर्म णोर्यः । आदेशि जैने समये स चापि न दोष कृन्न्यायपथाश्रितानाम् ।। २९ 1640) सम्यक्त्वचारित्रयुगे सुतीर्थे तीर्थेश्वराहारककर्मणोस्ते । योगाः कषाया ननु बन्धकाः स्युरस्मिन्नुदासीनतमं सदा तत् ।। ३० 1641) यद्येवमत्र निगदन्ति कथं नु सिध्येत् देवासुरादिसुरकर्म समूहबन्धः। ख्याति गतः समयरत्ननिधिश्रितानां रत्नत्रयानुपममण्डयतामृषीणाम् ॥ ३१ 1642 ) रत्नत्रयं निर्वृ तिकारणं स्यान्नै वापरस्येति विनिश्चयो मे । पुण्यास्रवो यस्तु स चापराधः शुभोपयोगस्य समुहबणस्य ॥ ३२ आत्मस्वरूप का निश्चय होना यह सम्यग्दर्शन है । आत्मा का जो निर्मल ज्ञान होता है इसे सम्यग्ज्ञान और उस आत्मा में जो अवस्थान प्राप्त होता है इसे चारित्र कहा जाता है । इसी कारण इन तीनों से कर्मबन्ध कैसे हो सकता है ? वह असंभव है ॥२८॥ जैन आगम में सम्यक्त्व और चारित्र गुण से जो तीर्थकर और आहारक कर्मों का बन्ध कहा गया है वह भी न्यायमार्ग के आश्रित हुए सत्पुरुषों के लिये दोषकारक नहीं है। इस का कारण यह है कि सम्यक्त्व और चारित्र ये दोनों उत्तम तीर्थ है। उन के होनेपर निश्चय से वे योग और कषाय उक्त तीर्थंकर और आहारक कर्मों के बन्धक होते हैं, सम्यक्त्व व चारित्र तो उन के बन्धमें निरन्तर अतिशय उदासीन रहते हैं ॥२९-३०॥ __शंका-सम्यक्त्व और चारित्र उक्त दोनों कर्मों के बन्ध में उदासीन हैं,यदि ऐसा कहा जाता है तो उस अवस्था में आगमरूप रत्न-निधि के आश्रित और अनुपम रत्नत्रय से मण्डित ऋषियों के जो देव-असुरादिरूप देवकर्मों का-देवगति के योग्य देवायु आदि शुभ प्रवृत्तियों काबन्ध प्रसिद्ध है वह कैसे सिद्ध हो सकेगा? उत्तर-रत्नत्रय तो मुक्ति का ही कारण है, अन्य - कर्मबन्ध आदि - का वह कारण नहीं है, ऐसा मेरा निश्चय है। उन के जो पुण्यप्रकृतियों का आस्रव होता है, उसे स्पष्टतया शुभ उपयोग का अपराध समझना चाहिये ॥ ३१-३२ ॥ ३०) 1 द्वे. 2 आगमादितीर्थे । ३२) 1 P पुण्यायो ।

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